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Wednesday, December 9, 2009

पहाड़ी मड़ुआ का दीवाना हुआ यूरोप

पहाड़ी मड़ुआ का दीवाना हुआ यूरोप

यहां गरीबों का निवाला वहां अमीरों का स्नेक्स अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजर उत्तराखण्ड की पैदावार पर अब यूरोप को भी पहाड़ी मड़ुआ का स्वाद रास आ गया है। यही कारण है कि नमकीन बनाने वाली एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी की निगाह अब उत्तराखण्ड में मडुआ की पैदावार पर है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में गरीबों का मुख्य निवाला मडुआ ही रहा है। मडु़आ की रोटी भले ही काले रंग रंग की दिखती हो पर इसके स्वाद व पोषक तत्व के बूते इसने यूरोप के बाजार में भी जगह बना ली है। मगर हैरत की बात यह है कि जहां की यह पैदावार हैं उस क्षेत्र में आज तक व्यवसायिक उपयोग नहीं किया जा सका। बताते हैं कि एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने महराष्ट्र व गुजरात में पैदा होने वाले मडुआ (वहां का स्थानीय नाम-नाचनी) के चिप्स, नमकीन, मठरी आदि का निमार्ण कर जब विदेशी बाजार में उतारा तो वहां के लोग इसके स्वाद के दीवाने हो गये। यही कारण है कि अब उत्तराखण्ड में मडुआ की पैदावार पर विदेशी कम्पनियों की नजर गई है। नमकीन बनाने वाली मुम्बई की मल्टीनेशनल कम्पनी सावंत स्नेक्स के प्रतिनिधि राकेश बंदोपाध्याय इन दिनों नैनीताल जिले में मडुआ का प्रबंधन करने आये हैं। वे गांवों में पहुंच कर ग्रामीणों को पैदावार बढ़ाने के प्रति प्रेरित करने के अलावा उनके पास उपलब्ध मडुआ खरीद भी रहे हैं। समाज कल्याण विभाग में अपने एक जानने वाले के माध्यम से गांवों तक पहुंच बना रहे श्री बंदोपाध्याय ने बताया कि मडुआ के स्नेक्स की मांग विदेशों में काफी बढ़ी है। इसकी पैदावार बढ़ाकर किसानों के सामने अब अच्छी कमाई का रास्ता खुल गया है। उन्होंने बताया कि मडुआ स्वास्थ्य के दृष्टि से भी उत्तम है इसी कारण विदेशों में चाव से खाया जा रहा है। इसमें 71 फीसदी कार्बोहाइड्रेड, 12 फीसदी प्रोटीन तथा 5 फीसदी वसा पाया जाता है। साथ ही फाइबर की मात्रा अधिक होने के कारण मडुआ से कैलौरी अधिक मिलती है।

-यहां बर्तन नहीं पत्थरों पर होता है भोजन

-चमोली जिले में हर साल जेठ (जून) महीने में होता है उफराईं देवी की डोली यात्रा का आयोजन -यात्रा के दौरान मौडवी नामक स्थान पर पत्थर पर दिया जाता है प्रसाद गोपेश्वर(चमोली)-गढ़वाल न सिर्फ देवभूमि के रूप में जाना जाता है, बल्कि यहां की रीतियों व परंपराओं की विशिष्टताओं के चलते इसे खास पहचान भी हासिल है। ऐसी ही एक अनूठी परंपरा के तहत नौटी-मैठाणा गांव के लोगों सहित मौडवी में उफराईं देवी की डोली यात्रा में भाग लेने वाले श्रद्धालु प्रसाद के रूप पका भोजन बर्तनों या पत्तलों में नहीं, बल्कि पत्थरों पर खाते हैं। उल्लेखनीय है कि क्षेत्रीय भूमियाल उफराईं देवी की डोली यात्रा हर वर्ष जेठ के महीने मैठाणी पुजारियों द्वारा निर्धारित शुभ दिन पर आयोजित की जाती है। इसके तहत ग्रामीण देवी की डोली को गांव के उत्तर-पश्चिम में ऊंची चोटी पर स्थित उफराईं के स्थान तक ले जाते हैं। यात्रा में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटती है। नौटी-मैठाणा गांव स्थित मंदिर से लगभग छह हजार फीट से अधिक की ऊंचाई पर स्थित उफरांई ठांक (स्थान) में स्थित मंदिर तक जाते हुए रास्ते में मौडवी नामक स्थान पर श्रद्धालुओं के लिए सामूहिक भोज तैयार किया जाता है। यहां से ठांक स्थित मंदिर में देवी के लिए भोग ले जाया जाता है। मंदिर में देवी को भोग लगाने व पूजा- अर्चना के बाद श्रद्धालु डोली के साथ वापस मौडवी आते हैं। यहां देवी के प्रसाद के रूप में तैयार दाल- चावल को शुद्धिकरण व देवी की डोली द्वारा परिक्रमा के बाद श्रद्धालुओं में बांटा जाता है। खास बात यह है कि भक्त इस प्रसाद को बर्तनों या पत्तलों पर नहीं, बल्कि पत्थरों पर रखकर खाते हैं। उल्लेखनीय है कि मुख्यालय से लगभग सत्तर किलोमीटर की दूरी पर तहसील कर्णप्रयाग के चांदपुर पट्टी स्थित ऐतिहासिक गांव नौटी-मैठाणा में भूमियाल उफराईं देवी का प्राचीन मन्दिर है। प्राचीनकाल में मंदिर के रखरखाव के लिए हिन्दू राजाओं ने गूंठ (महान मंदिरों के लिए स्वीकृत भूमि-राजस्व) का प्रावधान भी किया था। इस ऐतिहासिक मन्दिर में स्थापना के बाद से ही नित्य सुबह-शाम की पूजा अनवरत रूप से होती चली आ रही है। मंदिर के पुजारी भुवन चन्द्र व मदन प्रसाद ने बताया कि यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। उन्होंने बताया कि भूमियाल होने के चलते गांव के सभी घरों में किसी भी शुभ कार्य के आयोजन से पूर्व देवी मां की पूजा के लिए विशेष प्रावधान है। ग्रामीण पंकज कुमार ने बताया कि जून के महीने देवी की डोली यात्रा सांस्कृतिक विरासत होने के साथ-साथ वर्तमान में पर्यटन की दृष्टि से भी अनुकूल है। उनका कहना है कि वर्ष में एक बार देवी मां का प्रसाद पत्थर में खाने के लिए गांव के लोगों सहित बाहर नौकरी कर रहे ग्रामीण भी पहुंचते हैं। विशेष रूप से बच्चों व युवाओं को इस दिन का खासा इंतजार रहता है, क्योंकि उनके लिए यह अलग अनुभव होता है।
पहाड़ से साभार .....
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