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Friday, September 24, 2010

परिसीमन से परेशान उत्तराखंड

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|| सुदर्शन सिंह रावत ||
उत्तराखण्ड राज्य में परिसीमन लागू होने से क्षेत्रीय असन्तुलन विकास में मुख्य समस्या बन गया है। उत्तराखण्ड राज्य बनने के पीछे पहाड़ों के विकास सम्बन्धी जो मूल भूत कारण रहे है आज वे धीरे-धीरे वह विकास के रास्ते के बहुत पीछे छूट गये हैं। चाहे वो  राजधानी का मसला हो या परिसीमन का मुदा, आज भी वैसे है हाँलकि परिसीमन का मुदा तो पूरे देश के लिए सिरदर्द बना हुआ है। समय-समय पर लाकेसभा और विधान सभा में परिसीमन की सीमाओं को लकेर पुननिर्धारण की मांग उठती रही है जिसका आधार होता है जनसंख्या का बढ़ना या कम होना। जिसके कारण सीटो का क्षेत्र बदल दिया जाता है हांलाकि राज्यों में सीटो की संख्या यथावत रहती है लेकिन सीमांए बदले जाने से सीटठो के अन्तर्गत कई ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों की अदला-बदी हो जाती है यहां तक अनारक्षित सीट आरक्षित सीट में बदल जाती है और पहाडी क्षेत्र की सीटें मैदानी क्षेत्र में आ जाती है।
उत्तराखण्ड की भौगोलिक स्थिति अन्य राज्यों से अलग है जब परिसीमन आयोग उत्तराखण्ड आया तो यहां कि प्रमुख पार्टी (उत्तराखण्ड क्रान्तिदल-उक्रद) ने इसकी तीनों बैठकों (देहरादून, नैनीताल, पौड़ी) में इसका विरोध किया था तथा आयोग को उत्तराखण्ड की वास्ताविक स्थिति से अवगत कराया। वहा के स्थानीय लोगों में समाजसेवी यशपाल सिंह रावत का कहना है कि राज्य में परिसीमन भौगोलिक आधार पर या 2002 के परिसीमन के आधार पर हो क्योंकि नये परिसीमन में कई पहाड़ी विधानसभा क्षेत्र समाप्त होकर मैदानी क्षेत्रों मिल रहे है। जबकि उत्तराखण्ड में नए परिसीमन की आवश्यकता ही नही है उसे यथावत ही रहने देना चाहिए। जिसे पहाड़ी क्षेत्रों का और विकास होगा।
नए परिसीमन लागू होने के बाद जिला चमोली गढ़वाल से एक सीट (नन्द प्रयाग), पौड़ी गढ़वाल से दो सीट (घुमाकोट, वीरोखाल), पिथोरागढ़ से एक सीट (बागेश्वर) तथा अल्मोड़ा से भी एक सीट मिलाकर कुल छः सीटे पर्वतीय क्षेत्रों से कम हुई है जिन्हे मैदानी क्षेत्रों में जोड़ दिया गया रूदप्रयाग और चम्पावत जैसे दुर्गम इलाको में 1 लाख 14 हजार की आबादी विधायक बनाए गये है जबकि देहरादून के 55000 की आबादी की आबादी पर एक विधायक बना दिया गया। हऱिद्वार जिले में हर 16 किलोमीटर पर एक विधायक ह जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में 120 किलोमीटर से भी अधिक पर एक विधायक है यहा तक की पर्वतीय क्षेत्र के विधायक के लिए चीनी सीमा से लगे जोहर व्यास और दरमावैली की 300 किलोमीटर की दूरी तय करना एक चुनोती पूर्ण कार्य है।
आज राज्य में फिर से परिसीमन लागू किये जाने से उस क्षेत्र की समस्या और भी बढ़ गयी है मैदानी क्षेत्र में 26 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल पर एक विधायक है वही पर्वतीय क्षेत्रों में दस गुना क्षेत्रफल पर एक विधायक है पहाड़ों की भोगोलिक स्थिति विषम है। यहां तक सुविधाओं का भी आभाव है इस आलोक में उत्तराखण्ड की परिसीमन किसे क्यों और कैस मान्य हो सकता है जो कि बहुत बड़ी पीड़ा है?
वर्तमान मिह में ये देखा जाय तो पर्वतीय क्षेत्रों में लागे इस परिसीमन से विधायको के लिए लोकवित में निर्धारतिरत निधि का सदुप्रयोग प्रभावित हो सकता है इस प्रक्रिया में सरकार के लगभग नौ करोड़ रुपये का नुकसान होने की सम्भावना है। नैनीडांडा के चन्दर सिंह रावत व बिक्रम सिंह रावत का कहना है कि सरकार की ना समझाी भरी नीतियों के कारण ही पहाड़ी क्षेत्रों से जनता के पलायन के चलते मैदानी क्षेत्रों के जनसंख्या में लगातार वृद्धि हो रही है रोजगार के लिए पलायन करना यहां के लोगों की मजबूरी बन गयी है घनस्याली, टिहरी बी. एन. डंगवाल का कहना है कि हिमालयी राज्यों में परिसीमन क्षेत्र के आधार पर किया जाना चाहिऐ क्योंकि 2 गांव का फासला लगभग 3 से चार किलोमीटर से ज्यादा है और यातायत के साधन न होने के कारण यह फासला पैदल ही तय करना पड़ता है अगर यह परिसीमन जनसंख्या के आधार पर हो गया तो सदूर इलाकों में विकास होना लगभग अब असभ्य हो जायेगा।
वास्ताविक उत्तराखण्ड तो गांव में ही निवास करता है। उत्तराखण्ड की संस्कृति गांव में ही है यदि इसका सरक्षण करना है तो गाव का विकास करना जरूरी है परिसीमन लागू होना हो अब गावों की दृदर्शा होनी वक्त का तकाजा है कि परिसीमन के मुददे को लकेर सविधान में ससोधन किया जाये। संविधान में संसोधन से ही परिसीमन से होने वाले नुकसान से बचने का एक मात्र रास्ता है यदि निकट भविश्य में ऐसा नही हुआ तो पर्वतीय क्षेत्र की स्थिति और भी भयावह हो सकती है, लोग रोजगार की तलाश में मैदानी क्षेत्रों  में पलायन करते है और वही बस जाते है जबकि पहाड़ी ़क्षेत्रों की स्थिति आज के समय में अनुकूल नही है, क्योंकि यहां पानी लाने के लिए भी 4 किलोमीटर दूर तक जोते हैं तथा फसल बोने और सूखाने तक हाड तोड मेहनत करने के बाद राशन की दुकान व बच्चों को स्कूल जाने के लिए 5 किलोमीटर तक पैदल जाना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में गांव को मिलने वाली सुविधा भी छीन ली गयी है इसे बड़ा अन्याय उत्तराखण्ड पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए और क्या होगा?

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