खेत बंजर, मकान खंडहर, पराए हुए घर
डा. वीरेंद्र बत्र्वाल/नीरज डोभाल, देहरादून/पौड़ी लगता नहीं कि इन सूने गांवों में आज से दो-तीन दशक पहले बारहमासी रौनक रहती होगी। सर्दी के दिनों में अनुष्ठानों और शादियों के मौकों का तो कहना ही क्या था, जब गांवों में सतरंगी बहार आ जाती थी, लेकिन आज यहां के अधिकतर मकान खंडहर हो चुके खेत, खेत उजाड़ हैं। सरकार गांवों से पलायन रोकने के दावे कर सुखद सपने का अहसास करा रही हो, लेकिन अपनी थाती की इस दुर्दशा पर यहां के बुजुर्गो की आंखों में निराशा के आंसू झरते हैं। पलायन ने लोगों को अपनी माटी से बिछड़ा दिया है। रोजगार, शिक्षा और सुविधाओं की लालसा ने पहाड़ के गांव के गांव खाली कर दिए हैं। अफसोसजनक यह कि यह सिलसिला अलग राज्य बनने के बाद भी थमा नहीं। राज्य बनने के बाद जिस युवा को सरकारी नौकरी मिली, वह भी सबि धाणि देरादूण की तर्ज पर शहर में ही बस गया। आज नतीजा यह है कि पहाड़ के गांवों के अधिकतर घर महज साल में दो-तीन बार ही उनके मालिकों द्वारा गेस्ट हाउस की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं, शादी-विवाह के मौकों पर। जमीन का तो कोई पूछने वाला नहीं। पौड़ी गढ़वाल की थनगड़ घाटी हो या टिहरी गढ़वाल की डागर और लोस्तू-बडियारगढ़ पट्टियों के गांव। पलायन के दर्द के उकेरते ये सूने गांव भविष्य की भयावह तस्वीर बयां करते हैं। थनगड़ घाटी के 45 गांवों में कभी खूब चहल-पहल रहती थी। प्रकृति की वादियों में बसी यह घाटी एक जमाने फल और दाल उत्पादन में अग्रणी पंक्ति में थी, लेकिन अब पलायन ने इन गांवों की तस्वीर बदल दी है। जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर घंडियाल कस्बे के पश्चिमी ओर विस्तृत भूभाग पर फैली थनगड़ घाटी के ये पलायन की पीड़ा भोग रहे हैं। घाटी में बसे इन गांवों की आबादी सात हजार हंै। यहां के लोग सड़क से पीठ पर बोझा ढोकर दस किमी पैदल दूरी तय करते हैं। बाजार, विद्यालय, स्वास्थ्य केंद्र और बस पकड़ने के लिए लोग मीलों पैदल चलते हैं। सरकार ने सड़कें बनाई, पर आधी-अधूरी। विद्युतीकरण किया, लेकिन समस्या लो वोल्टेज। विद्यालय दूर होने से बालिका शिक्षा का बुरा हाल। प्राइमरी के बाद उन्हें घर की जिम्मेदारियां सौंप दी जाती हैं और बचपन चूल्हा-चौका और छोटे भाई-बहनों की देखभाल में कट रहा है। कुदरत ने इस क्षेत्र को इनायत तो बख्शी है, लेकिन लोग कृषि व पशुपालन से लगातार दूर होते जा रहे हैं। खेती अब बूढ़ों और औरतों के जिम्मे है। ग्रामीण जगमोहन रावत व कल्जीखाल ब्लाक के ज्येष्ठ उप प्रमुख विश्व प्रकाश डंगवाल कहते हैं कि बीहड़ जंगलों के बीच बसे इन गांवों में जंगली जानवरों का भी खतरा है। यही पीड़ा टिहरी गढ़वाल की डागर पट्टी के दूरस्थ गांवों-टोला,ग्वाड़ व राडागाड की है। सड़क से दस किमी दूर इन गांवों में इसी दायरे में कोई चिकित्सा सुविधा नहीं है। सिरदर्द जैसी मामूली बीमारी पर भी दवा के लिए मीलों पैदल। सड़क सुविधा के लिए सरकार की दर पर दस्तक देते-देते लोग थक चुके हैं।?माध्यमिक शिक्षा की दशा भी ठीक नहीं। इन असुविधाओं के बीच शहरों में थोड़ा बहुत गुजारा करने लायक युवक अपने बच्चों और माता-पिता को साथ रखना ही उचित समझते हैं।
VIVEK PATWAL, Mobile no. 9811511501,
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