सुदर्शन सिंह रावत
पर्वतीय क्षेत्र के विकास के नाम पर उत्तर प्रदेश से लंबी लड़ाई लड़ने के बाद बने उत्तराखंड राज्य में एक और आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। यह आंदोलन राज्य की राजधानी गैरसेण या किसी पर्वतीय जगह पर बनाने की मांग के साथ शुरू होगा।
स्थाई राजधानी किसी पहाड़ी इलाके में बनाने को लेकर भले ही आमजन के मन में आशा की किरण बाकी हो, राज्य के सभी बड़े राजनीतिक दलों और विशेषकर पिछले एक दशक के दौरान सत्तारूढ़ रही भाजपा और कांग्रेस ने देहरादून को ही स्थाई राजधानी बनाने का पक्का निर्णय ले लिया है। हालांकि संवेदनशील मुद्दा होने के चलते कोई भी राजनेता स्पष्ट रूप से कुछ भी कहने से परहेज करता नजर आता है लेकिन पिछले दस वर्षों के दौरान बड़े पैमाने पर देहरादून में हुए सरकारी निर्माण कार्य यह साबित करने के लिए काफी हैं कि जनता को बरगला कर और दीक्षित आयोग के नाम पर झूठी आस को दिलाए रखने वाले राजनीतिक दलों की मिलीभगत के चलते इस पहाड़ी राज्य की राजधानी को देहरादून में ही बनाए रखने का षड्यंत्र रचा जा चुका है।
आंदोलन की पृष्ठभूमि दीक्षित कमीशन द्वारा गैरसेण को राज्य की राजधानी बनाने के लिए उपयुक्त ना माने जाने के बाद उपजे असंतोष से तैयार हुई है।
आंदोलन का तानाबाना बुन रहे देवभूमि संस्कृति रक्षा मंच के कार्यवाहक अध्यक्ष प्रकाश हरबोला ने बताया कि उत्तराखंडवासी अलग राज्य पाकर भी ठगा महसूस कर रहे है। उन्होंने कहा कि पर्वतीय राज्य की राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में होनी चाहिए। उल्लेखनीय है कि दशकों से पृथक पहाड़ी राज्य के लिए संद्घर्षरत रही जनता ने 1994 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह यादव सरकार द्वारा गठित रमाशंकर कौशिक समिति के समक्ष पहाड़ी क्षेत्र में नई राजधानी बनाए जाने के लिए एकमत हो राय दी थी। समिति ने कुमाऊं, गढ़वाल और तराई क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों, व्यापार मंडलों तथा आम जनता के साथ बैठकें कर अलग राज्य बनाने की बाबत जो संस्तुति की थी उसमें एक प्रश्न नए राज्य की राजधानी से संबंधित भी था।
कौशिक समिति की रिपोर्ट में बहुत साफ-साफ गैरसैंण को राजधानी बनाए जाने की बाबत जनपक्ष होने की बात कही गई है। समिति के अध्यक्ष ने 30 अप्रैल 1994 को तत्कालीन मुख्यमंत्री को प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से नए प्रस्तावित राज्य की राजधानी को कुमाऊं एवं गढ़वाल के मध्य स्थित क्षेत्र में बनाए जाने का उल्लेख करते हुए जनता की इस मांग को प्रमुखता दी थी। इसके बावजूद राज्य बनने के साथ ही देहरादून को स्थाई राजधानी बनाए जाने की मूक सहमति प्रदेश के बड़े राजनेताओं, बड़े जमीन मालिकों, व्यापारियों और नौकरशाहों के बीच बन गई। इसे कौशिक समिति के पहले सचिव रहे वरिष्ठ नौकरशाह आरएस टोलिया की टिप्पणी से समझा जा सकता है।
जब गैरसैंण को राजधानी बनाए जाने के मुद्दे पर नौ अगस्त 2004 को 39 दिन अनशन पर रहने के बाद वयोवृद्ध आंदोलनकारी बाबा मोहन उत्तराखण्डी ने प्राण त्याग दिए थे, तत्कालीन मुख्य सचिव टोलिया ने इसे एक असंभव मांग करार देते हुए आंदोलनकारियों को बिन मांगी सलाह दे डाली कि ऐसे मुद्दों पर आंदोलन नहीं किया जाता। डॉ टोलिया का कथन राज्य के पहाड़ी नौकरशाहों की सोच को स्पष्ट करने के लिए काफी है। यही वह सोच है जिसके चलते अस्थाई राजधानी होने के बावजूद देहरादून में अभी तक कुल 16749१ लाख रुपये के स्थाई निर्माण कार्य हो चुके हैं। चूंकि इन निर्माण कार्यों में राज्यपाल व मुख्यमंत्री के आवास, कई सरकारी भवन व विधायक के हॉस्टल इत्यादि शामिल हैं जिससे इस बात की पुष्टि हो जाती है कि राजधानी को देहरादून में ही बनाए रखने का मन वर्तमान सरकार बना चुकी है तथा इसमें सरकार को समर्थन दे रही उत्तराखण्ड क्रांति दल व मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की भी सहमति है।
गैरसैंण को राजधानी न बनाए जाने के पीछे मुख्य रूप से राज्य की बेलगाम हो चुकी नौकरशाही जिम्मेदार है। देहरादून के ऐशो-आराम को छोड़कर दूरस्थ पहाड़ी क्षेत्र में राजधानी बनाए जाने का सबसे अधिक विरोध नौकरशाहों द्वारा ही किया जाता रहा है। नारायण दत्त तिवारी को बाबा मोहन उत्तराखण्डी की भूख हड़ताल से पूरी तरह अंधेरे में रखा जाना और प्रशासनिक अमले की संवेदनहीनता से यह बात और पुख्ता हो जाती है। तिवारी की राजनीति को जानने- समझने वाले कतई यह नहीं मान सकते कि वह बाबा मोहन उत्तराखण्डी के अनशन तुड़वाने के विरुद्ध थे। कई दशकों से राजनीति में सक्रिय तत्कालीन मुख्यमंत्री जनआंदोलनों और जनभावनाओं के उत्साह को अपने राजनीतिक कौशल से शांत करने की कला में पारंगत माने जाते हैं। ऐसे में उन्हें गलत जानकारी उपलब्ध करा नौकरशाहों ने गैरसैंण के मुद्दे को लेकर आंदोलनरत उत्तराखण्डियों के आक्रोश को भरसक दबाने का प्रयास किया
यहां इस पूरे प्रकरण पर जनता की उदासीनता भी एक बड़ा मुद्दा है। राज्य गठन के बाद उत्तराखण्ड के जनमानस में भारी बदलाव देखने में आ रहा है। जनआंदोलनों के प्रति अब वैसा उत्साह और जोश पूरी तरह से नदारद है रोजगार पृथक राज्य आंदोलन के दौर में देखने को मिलता था। इसकी एक बड़ी वजह शायद राज्य आंदोलनकारी शक्तियों का बिखराव तथा स्वयं उनकी प्रतिबद्धता को लेकर बन
दीक्षित कमीशन के सुझावों के खिलाफ रोष प्रकट करते हुए हरबोला ने कहा कि राज्य की राजधानी पर्वतीय क्षेत्र में बने, इसके लिए नवरात्र के प्रथम दिन से राज्यव्यापी आंदोलन की शुरुआत होगी। उन्होंने बताया कि आंदोलन की रूपरेखा बननी शुरू हो गई है। आंदोलन को एक तीसरा गैर राजनीतिक मोर्चा बनाकर चलाया जाएगा।
हरबोला ने बताया कि इस कार्य में उन्हें जनता सहित भाजपा, कांग्रेस और यूकेडी (उत्तराखंड क्रांति दल) के नेताओं का भी भारी समर्थन मिल रहा है। पर्वतीय क्षेत्र में राजधानी के लिए दलील पेश करते हुए हरबोला ने कहा कि पर्वतीय क्षेत्र में विकास का प्रवाह बहना चाहिए। यदि वास्तव में विकास पर्वतीय क्षेत्र का करना है तो उस दिशा में ही सरकार को आगे बढ़ना चाहिए। उन्होंने बताया कि अलग राज्य बनने के बावजूद भी पर्वतीय क्षेत्र में विकास की कमी होने के कारण लोगों का पलायन मैदानी इलाकों में हो रहा है। राज्य की समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं।
जाने माने लोक गायक एन. एस. नेगी भी दीक्षित कमीशन के सुझावों से आहत हैं। उन्होंने हाल ही में दीक्षित कमीशन के सुझावों के खिलाफ एक गाना भी तैयार किया है। नेगी ने बताया कि वह किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर कार्य नहीं करते, बल्कि जनता की वास्तविकता को अपने शब्दों में बयां करते हैं।
गौरतलब है कि नेगी उत्तराखंड के जानेमाने लोकगायक हैं। वर्ष 2007 में हुए विधानसभा चुनाव में तत्कालीन नारायण दत्त तिवारी सरकार के खिलाफ सूबे की जनता में माहौल बनाने में इनके गाए गीतों का भारी योगदान रहा। नारायण दत्त तिवारी के क्रियाकलापों के खिलाफ गढ़वाली बोली में इनके गीत नौछमी नारायणने उन दिनों राज्य में धूम मचाई थी। राजनीतिक दलों ने तो उनके गीतों की सीडी तैयार कर जनता में मुफ्त में बंटवाई थी।
उत्तराखंड युवा क्रांति दल के अध्यक्ष एवं विधायक पुष्पेश त्रिपाठी का कहना है कि पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की राजधानी गैरसेण में होनी चाहिए। राज्य की जनता का भी यही मत है।
उन्होंने कहा कि स्वयं दीक्षित आयोग ने माना है कि राजधानी के लिए जनभावना गैरसेण के पक्ष में हैं, लेकिन स्थाई राजधानी के लिए जनभावना के खिलाफ जाते हुए उसने भौगोलिक परिस्थितियों को आधार बनाते हुए देहरादून और हरिद्वार के बीच स्थित हर्रावाला को राजधानी बनाने की सिफारिश की है।
त्रिपाठी ने गैरसेण को राजधानी बनाने के लिए हो रहे विलंब में भाजपा-कांग्रेस दोनों दलों को जिम्मेदार ठहराया है। साथ ही उन्होंने मांग की है कि दोनों ही दल राज्य की स्थाई राजधानी के बारे में अपनी राय स्पष्ट करें। गैरसेण के लिए चलने वाले आंदोलन के सवाल पर उन्होंने कहा कि आंदोलन से विकास पर असर पड़ता है, लेकिन अवसर आएगा तो वह आंदोलन से नहीं चूकेंगे।
गौरतलब हो कि नौ नवम्बर, 2000 को प्रभाव में आए उत्तराखंड राज्य में शुरू से ही यह मांग जोरशोर से उठती रही है कि राज्य की राजधानी किसी पर्वतीय क्षेत्र में बनें। किन्तु तत्कालीन सुविधाओं के लिहाज से देहरादून को अस्थाई राजधानी चुना गया। नई राजधानी के चयन हेतु सेवा निवृत न्यायाधीश विरेन्द्र दीक्षित के नेतृत्व में एक आयोग का गठन 11 जनवरी 2001 को किया गया था।
आयोग ने अपने दस सेवा विस्तार के बाद सात वर्षों में अपनी रिपोर्ट तैयार की। हाल ही में आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी है। सरकार ने विपक्ष के भारी विरोध के बावजूद रिपोर्ट को विधानसभा में प्रस्तुत किया था।
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