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Saturday, December 25, 2010

http://garhwalbati.blogspot.com गढ़वाल बटी गूगल के १/१० वें स्थान पर

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सभी उत्तराखंडी भाई बहिनों का हार्दिक धन्यवाद करती है जिनके कारण आज गढ़वाल बटी गूगल के १/१० वें स्थान पर पहुँच गयी हैं  एवं अलेक्सा के 3,065,९५८ पर पहुँच गयी है जोकि किसी गढ़वाली न्यूज़ ब्लॉग की लिए अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि हैं |

गढ़वाल बटी आप सभी उत्तराखंडी भाई बहिनों से आशा रखती है कि आगे भी सहयोग मिलता रहेगा |


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धन्यवाद
जयदेव कैंथोला
गढ़वाल बटी

Thursday, December 23, 2010

प्रसाशन पर भारी पड़ा आस्था

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 (सुदर्शन  सिंह  रावत  की रिपोर्ट ) उत्तराखंड के पौड़ी जिले में ख्यातिलब्ध बूंखाल कालिका मंदिर में  2000 किलोमीटर दायरे में रहने वाले लोगों की मंदिर में होने वाले इस मेले के प्रति अटूट आस्था है। लोग पूरे साल अपनी तरह तरह की मनौतियां मानते हैं और उसके पूरा होने पर मंदिर में आकर वर्ष में एक ही दिन पशु बलि करते हैं। इस दिन सैकड़ों की तादाद में प्रसिद्ध काली देवी के मंदिर में देवी के सामने नर भैंसों और बकरों की बलि दी जाती है, जनश्रुतियों के अनुसार चार सौ साल पहले चोपड़ा गांव में कन्या का जन्म हुआ और कन्या को गांव के ही बच्चों ने खेल-खेल में एक गड्ढे में दबा दिया और गड्ढे में बकरों व भेंड़ों के कान काट कर डाल दिए। तब कन्या ने सपने में गांव के लोगों को दर्शन देकर बताया कि मैं वहां जमीन के नीचे दबी हूं और अब यहां हर साल बलि दी जाए। यूं तो बूंखाल में हर शनिवार को बकरों की बलि चढ़ाई जाती है किंतु विशेष उत्सव पर सैकड़ों की संख्या में नर भैंसो व बकरों की बलि होती है सालो से  मेले में बलि समर्थकों और बलि का विरोध कर रहे सामाजिक संगठन के कार्यकर्ताओं के बीच नोकझोंक भी होती थी परन्तु इस बार पीपुल फॉर एनीमल्स उत्तराखण्ड की सचिव गौरी मौलखी ने इस मामले में नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है। याचिकाकर्ता ने कहा है कि पौड़ी जिले के बूंखाल कालिका मेले में लगभग पांच हजार से अधिक निरीह पशुओं को समारोहपूर्वक मारा जाता है। इन जानवरों को मारने के बाद उनकी लाशों को वहीं सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसलिए पशुओं की इस प्रकार होने वाली नृशंस हत्या पर रोक लगनी चाहिए। गौरी मौलखी की इस जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए उत्तराखण्ड हाईकोर्ट ने सात दिसंबर को पशुबलि पर रोक लगाने के लिए राज्य सरकार को निर्देश दिए थे। आदेश में यह भी कहा गया था कि जो व्यक्ति पशुबलि देगा उस पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। न्यायालय ने राज्य सरकार के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह एवं प्रमुख सचिव पशुपालन समेत सदस्य सचिव उत्तराखण्ड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को तीन हफ्तों के भीतर जवाब दाखिल करने को भी कहा है हाईकोर्ट के पिछले सप्ताह दिए गए आदेश का पालन करते हुए प्रशासन को इस पर पूर्णतः रोक लगाना था जिसमें वह पूरी तरह सफल नहीं हो पाया। हां इस बार बलि चढ़ने वाले पशुओं की संख्या में पहले के मुकाबले कमी जरूर आई।   मेले में पशुबलि को रोकने के लिए पुलिस, पीएसी और होमगार्ड के करीब डेढ़ हजार जवान तैनात किए गए थे लेकिन गांवों में एक दिन पहले से ही मेले की तैयारियां शुरू हो गई थीं। जिला मुख्यालय से करीब 40 किमी  दूर कुई, डुमलोट, चोपड़ा, मथिगांव, बहेड़ी बजवाण आदि गांवों में इसकी तैयारी देखी जा सकती थी। ग्यारह दिसंबर की सुबह चार बजे से ही बलि समर्थक नर भैंसों और बकरों को लेकर बूंखाल के लिए रवाना हो गए। दूसरी ओर करीब पांच बजे कोटद्वार के उपजिलाधिकारी गिरीश चंद्र के नेतृत्व में प्रशासन की एक टीम बलि के लिए जा रहे पशुओं को रोकने के लिए बेला बाजार पहुंची। स्थानीय लोगों ने बताया 'थलीसैंण के बलेख गांव के लोगों ने प्रशासन की कार्रवाई का विरोध किया। बलि समर्थकों ने प्रशासन की ओर से लगाए गए आधे दर्जन बैरियरों को तोड़ दिया। इसके बाद तीन और नर भैंसों को लेकर ग्रामीण बेला बाजार से आगे चले गए।' इसी बीच बेला बाजार से तीन किमी ऊपर चौड़ीखाल नामक स्थान पर जिलाधिकारी दिलीप जावलकर एवं पुलिस अधीक्षक पुष्पक ज्योति ने भी तीस नर भैंसों को रोकने का प्रयास किया। लेकिन ग्रामीणों की भीड़ को देखते हुए प्रशासन ने टकराव टाल दिया। करीब साढ़े बारह बजे से बूंखाल में नर भैंसो और बकरों की बलि चढ़नी शुरू हुई। शाम तक 70 नर भैंसे तथा 180 के करीब बकरों की बलि चढ़ाई गई। जबकि पिछले साल बूंखाल मेले में 120 नर भैंसों की बलि चढ़ाई गई थी। एक अनुमान के मुताबिक इस मेले में करीब 40 से 50 हजार श्रद्धालु मौजूद थे। मंदिर परिसर में भी पुलिस और बलि समर्थकों के बीच हल्की झड़प हुई। लेकिन बलि समर्थकों के आगे पुलिस फोर्स की एक नहीं चली।  शांतिकुंज हरिद्वार के गायत्री परिवार की ओर से बलि के विरोध में पर्चे बांटे गए पौड़ी के बुजुर्ग निवासी दुलारे सिंह बिष्ट ने बताया कि मां काली के मंदिर में पता नहीं कितने सालों से यह प्रथा चली आ रही है और इस दिन प्रशासन को भी आकर यहां का चमत्कार देखना चाहिये कि किस तरह से पशु बिना किसी की प्रेरणा से बलि स्थल पर अपने आप ही आ जाता है। उन्होंने बताया कि लोग पूरे साल अपनी मनोकामनायें देवी मां से मानते हैं और उसके एवज में श्रद्धा के साथ बलि चढाते हैं। इस दिन बलि चढ़ने वाला पशु पहाड़ की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर में आने के लिये इधर उधर नहीं भागता है बल्कि वह अपने आप ही पहाड़ चढ़ जाता है और वहां पहुंच जाता है। इसे देवी मां का प्रताप ही कहना चाहिये। एक अन्य निवासी रामपाल सिंह रावत ने कहा कि देश के कई ऐसे स्थान हैं जहां पर पशु बलि दी जाती है लेकिन वहां पर कोई रोक टोक नहीं होती है तो यहीं पर क्यों इस तरह की रोक टोक की बात की जा रही है। उन्होंने कहा कि यह सदियों पुरानी परम्परा है। लोग अपनी मनौती पूरा होने के बाद ही यहां पशु बलि के लिये आते हैं।रावत ने बताया कि जिस स्थान पर बलि दी जाती है, वहां न तो कोई भय का वातावरण होता है और न ही किसी प्रकार का प्रदूषण होता है। सैकड़ों की संख्या में आने वाले चील प्राकृतिक रूप से सफाई का काम करते हैं। जंगलों में रहने वाले सियार भी इस काम में सहयोग करते हैं इस साल का बूंखाल मेला ग्रामीणों, प्रशासन और सामाजिक संगठनों के लिए किसी परीक्षा से कम नहीं रहा 11 दिसम्बर को सम्पन्न इस एकदिनी परीक्षा में न कोई पास हुआ और न कोई फेल। नर पशुओं की बलि देकर ग्रामीणों ने सदियों से चली आ रही परंपरा का निर्वहन किया तो प्रशासन बलि की संख्या कम करवा कर अपनी पीठ खुद थपथपाती दिखी। सामाजिक संगठनों ने बलि प्रथा पूरी तरह बंद न करने के लिए प्रशासन को जिम्मेदार बताया। सामाजिक संगठनों के लगातार दबाव के चलते तीन दिन बाद प्रशासन को पशु बलि देने वालों के खिलाफ मामला दर्ज करना पड़ा।  बूंखाल पौड़ी प्रशासन के मुताबिक 31 लोगों के खिलाफ पशु क्रूरता अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया है। इसके अलावा 16 अज्ञात लोगों के खिलाफ भी मामला दर्ज हुआ है। मामला दर्ज होने के बाद प्रशासन आगे कौन सा कदम उठायेगा यह देखना बाकी है नामजद आरोपी  ग्राम सभा  नोगांवा  से साबर सिंह  आनंद सिंह गुडवर सिंह ग्राम सभा  चोपड़ा से राजेंद्र सिंह महाबीर सिंह  नंदराम देहरादून, भूपेंद्र प्रसाद  बहेड़ी, शेर सिंह ,पंचम सिंह ,ग्राम - बमोर्थ,गोविन्द सिंह  किरसाल,रणजीत लाल सोंटी, भगत लाल कुंडी,केदार सिंह मिलई,बिनोद  सिंह कुई, दिलबर सिंह,श्याम प्रसाद सेमलत,राजेंद्र सिंह फल्दवाड़ी,दरवान सिंह धर्म सिंह मंडकोली, आनद सिंह बुरांसी, देवेंदर सिंह जवाड़ी , राम सिंह किम्डांग,सुरेश सिंह पसींडा,राम सिंह खंडोली, त्रिलोक सिंह बनेख , मनबर सिंह ओड़ागाड़,ओमप्रकाश चुफंडा ! बूखाल में नर भैंसो की बली देने वाले इन लोगो के खिलाफ  तहसील  थलीसेंण में मुकदमे  कायम  किए  हैं !

देर आयद, दुरुस्त आयद' की तर्ज

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सरकारी डिग्री शिक्षकों को दो दशक से ज्यादा खपाने के बाद आखिकार स्थायीकरण का लाभ मिल गया। 'देर आयद, दुरुस्त आयद' की तर्ज पर सरकार ने बुधवार को इस बाबत शासनादेश जारी कर दिया।
Main Te Ati Pyaru Lagdu Uttrakhandउच्च शिक्षा प्रमुख सचिव पीसी शर्मा की ओर से जारी आदेश में प्रदेश के 70 डिग्री कालेजों में कार्यरत 456 प्रवक्ताओं का स्थायीकरण किया गया। राज्य सरकारी सेवकों की स्थायीकरण नियमावली 2002 एवं उत्ताराखंड उच्चतर शिक्षा सेवा नियमावली 2003 के प्रावधानों के तहत डिग्री शिक्षकों को स्थायी किया गया। स्थायीकरण शिक्षकों के शुरुआती दो वर्ष के प्रोबेशन पीरियड के बाद से लागू होगा। इस आदेश के बाद डिग्री शिक्षकों को स्टडी लीव, प्रतिनियुक्ति पर अन्यत्र सेवा में बगैर इस्तीफा दिए जाने समेत कई अधिकारों के इस्तेमाल का रास्ता खुल गया है। यहा बता दें कि 'दैनिक जागरण' ने बीती 21 अगस्त समेत कई अंक में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया था। इसके बाद हरकत में आए शिक्षा निदेशालय ने शासन को प्रस्ताव सौंपा। लंबे अरसे तक शासन के गलियारों में उलझकर रह गए इस प्रस्ताव को आखिरकार उच्च शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह बिष्ट ने मंजूरी दी। मंत्री से प्रस्ताव को मंजूरी मिलने के बाद स्थायीकरण का रास्ता साफ होने के बारे में ' दैनिक जागरण' ने बीते 21 दिसंबर को खबर प्रकाशित की थी। शासनादेश जारी होने से सरकारी डिग्री कालेजों में नियमित नियुक्त शिक्षकों को वर्षो खपाने के बाद अब स्थायीकरण नसीब हुआ। इस दौरान बड़ी तादाद में शिक्षक सेवानिवृत्ता हो चुके हैं। शासनादेश के बाद डिग्री शिक्षक तमाम धारणाधिकार, देयों, मृतक आश्रितों की नियुक्ति समेत समुचित सुविधाओं के विधिवत लाभ के हकदार हो गए हैं। 
in.jagran.yahoo.com se sabhar

Monday, December 20, 2010

उतराखंड राज्य विकास के साथ पहाड़ो की संस्कृति की ब्यथा

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उतराखंड  राज्य विकास के साथ पहाड़ो  की संस्कृति की ब्यथा   
(सुदर्शन सिंह रावत कि रिपोर्ट )  | उत्तराखंड के पहाड़  अब बुजर्ग  हो गए हैं किसी ने ठीक ही कहा था कि  पहाड़ो का पानी और जवानी अपने जन्म भूमि के काम  नहीं  आई  आज सुंदर प्रकृति  से  भरपूर सुन्दरता व सीढ़ी नुमा खेत सब बुजर्ग हो  गए है आज  से  20 - 25  साल पहले  खेतों की उर्वरता बनाए रखने के लिए पहले गोठ लगती थी पचीस पचास पशुओं को रातभर एक ही खेत में बांधकर रखा जाता था. इस प्रकार खेत बदल बदल कर गोठ लगती थी अब गोठ प्रथा भी लगभग ख़त्म हो चुकी है. अधिक मेहनत और कम लाभ के चलते भी कुछ प्रथाएं ख़त्म हुई हैं, इसके विकल्प में मनीऑर्डर अर्थव्यवस्था आ जाने से लोगों का जीवन थोड़ा आसान और आराम तलब हो गया. दिनभर खेतों में मेहनत करने के बजाय सीधे दूकान से राशन लाना सभी को अच्छा लगता है और जब आदमी के पास फ़ुर्सत ज़्यादा हो तब फ़ैशन उसके पास ख़ुद ब ख़ुद चला आता है. लेकिन यह फ़ैशन  उत्तराखंड की सांस्कृतिक ह्रास का पर्याय  बनती जा रही है पहले  गौमाता  की पूजा होती आज लोग  पशुओं को जंगलो में छोड़कर शहरो में  रोजगार के लिए  पलायन  कर रहे है   जिन लोग ने  पहाड़ो  में जन्म लिया आज  वह पलायन कर रहे है और बहार के लोग पहाड़ो में बसने के तैयार है  साठ वर्ष पूर्व उत्तराखंड में मैदानी जीवन की दस्तक बहुत कम या न के बराबर थी. नौकरियों पर तब बहुत कम लोग थे, इसलिए पहाड़ का पारंपरिक रहन-सहन और सांस्कृतिक ढांचा अपना मूल स्वरूप नहीं छोड़ पाया था. इससे पहले पहाड़ी जीवन के रहन-सहन में थोड़ी बहुत तब्दीली  धीरे धीरे होने परिवर्तन लगा बाद में जब पहाड़ के लोग मैदानों में नौकरियों पर आने लगे और मैदानों में रूखा सूखा खाकर छुट्टियों के दौरान गांवों में बन ठन कर जाने लगे. लोगों के बीच थोड़ा बहुत रहन-सहन का तौर तरीका बदलने लगा. मदानो  से आने वाला आदमी घर भर के सदस्यों के लिए नए नए कपड़े व  साबुन, तेल, टूथपेस्ट आदि भी. 1962 में भारत चीन की लड़ाई के बाद पहाड़ों पर तेज़ी से मोटर सड़कों का निर्माण शुरू हुआ. इसी बीच हिमालय के अग्रिम हिस्सों में फ़ौजी चौकियां बननी भी शुरू हुई. देश के कई हिस्सों के सैनिक पहाड़ों पर मोर्चा संभालने के लिए आए. बाहरी लोगों की आमदरफ़्त बढ़ने के साथ साथ नए नए व्यवसाय व व्यापार भी बढ़े. आज़ादी के बाद पहाड़ी कस्बों में पंजाबी शरणार्थी भी अपना कारोबार जमा चुके थे. ट्रांजिस्टर क्रांति के बाग पहाड़ी गांवों में जगह जगह फ़िल्मी गाने बजने शुरू हुए. छुट्टी से घर लौटते हुए हर पहाड़ी फ़ौजी के कंधे पर बजता हुआ ट्रांजिस्टर लटका रहता था. यही वह दौर था जब पहाड़ी घसियारिनों ने पारंपरिक लोकगीतों को छोड़कर फ़िल्मी धुनें गुनगुनानी भी शुरू की. पहाड़ और मैदान के बीच आमोदरफ़्त बढ़ने के साथ पारंपरिक पोशाकों का महत्व भी कम होने लगा.95 वर्षिया बुजुर्ग श्री शिव राज सिंह रावत ग्राम उठिंडागावं नैनीडांडा गढ़वाल के मूलनिवासी कहना है की साठ वर्ष पुर्व लोग  मिरजई, त्यूंखा, पटग्वा, अंगरखा, अचकन, फत्वी, गत्यूड़ी, तिकबंद, रेबदार अथवा चूड़ीदार पैजामा व बच्चों के सलदराज आदि का चलन था जो अब  ख़त्म हो गया और इनकी जगह कोट पैंट पतलून कमीज़ ब्लाउज़ पैजामा आदि. पहाड़ों के बहुत व्यापक और विशालकाय सांस्कृतिक परिदृश्य को टीवी के छोटे परदे   ने  एकाएक ढक दिया. सस्ते और हल्के मनोरंजन ने पहाड़ी लोक-संस्कृति के मूल रंगो को बदरंग कर दिया.  संक्रांति के दिन अब गांवों में ढोल व दमाऊ बजाने  वाले अब नहीं रहे. हुड़का प्रचलन से बाहर हो गए है  गया. ढोल सागर जानने वाले बहुत कम लोग रह गए सब दुर्लभ और शायद कुछ सालो बाद  सुनने को नहीं मिलगा महीनों तक होली गाने का रिवाज अब टूट सा गया है. पहले बसंत पचंमी के दिन से गांव के पंचायती चौक में गीतों के झुमके शुरू हो जाते थे. अब ये प्रथा कुछ अब जौनसार के इलाकों को छोड़कर और कही नहीं दिखाई देती. गर्मियों के दिनों में पहाड़ों में लगने वाले कौथीग कि जगह  ठेठ बाज़ारी मेले लगने लगे है  आज जो . आर्थिक स्तर पर जो परिवर्तन हुए उनका सीधा असर भी पहाड़ी जीवन के रहन-सहन पर पड़ा. यदि समय रहते उत्तराखंड सरकार व  हम सभी लोगो को  बिरासत में मिली सस्कृति को नहीं बचा पाए तो पश्ताचाप के अलावा हमारे पास कुछ नहीं बचेगा ?
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