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Saturday, May 2, 2009

जंगल के साथ ही जल गई कई घरों की खुशियां भी

 

पौड़ी गढ़वाल। तमाम दावे, वनों को आग से बचाने की सारी कवायदें, पानी की तरह बहाई गई लाखों रुपये की रकम और इस मौसम में आग मुक्त जंगल के सभी वादे धरे के धरे रह गए। देखते ही देखते धुआं उठा और जंगल जलने लगे पर जिम्मेदार विभागों की नींद नहीं खुली। हाथ पर हाथ बांधे अधिकारी अपनी 'फायर लाइनों' के भरोसे बैठे रहे और आग ने जंगलों के साथ कई घरों की खुशियों को भी जलाकर राख कर दिया। शुक्रवार को पौड़ी में एक ही गांव के पांच लोगों के जंगल की आग में जान गंवाने के बाद वन विभाग की कार्यप्रणाली कठघरे में आ गई है। हादसे ने उन 'फायर लाइनों' की उपयोगिता पर भी सवाल उठा दिए हैं, जिनके भरोसे विभाग हर बार खुद अपनी पीठ थपथपाता रहा है।

हर साल 14 फरवरी से वन महकमा फायर सीजन का शोर मचाता है। लाखों रुपये पानी की तरह बहाकर जंगलों में जर्मन पैटर्न पर 'फायर लाइन' बनाई जाती हैं। दावे किए जाते हैं कि इससे जंगल में आग एक क्षेत्र विशेष से आगे किसी सूरत में नहीं फैलेगी, लेकिन पिछले कुछ सालों से यह दावा धुआं हो रहा है। फायर लाइनें आग पर काबू पाने में बिलकुल नाकाम साबित हो रही हैं। ऐसे में इनकी उपयोगिता पर भी सवाल उठने लगे हैं। इसके बावजूद महकमा इस ओर ध्यान ही नहीं दे रहा। हर बार बस आग पर काबू की कोशिश की की बात कह अधिकारी समस्या से अपना पल्ला झाड़ लेते हैं, लेकिन शुक्रवार को हुए हादसे ने महकमे की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान उठा दिए हैं।

शुक्रवार को गगवाड़ा गांव में हुए हादसे ने छह लोगों की जान लेली और सात लोगों को गंभीर रूप से झुलसा दिया। गांव से केवल पांच किलोमीटर दूरी पर कमिश्नरी मुख्यालय और वन महकमे के सिविल सोयम व फारेस्ट विभाग स्थित है, लेकिन फायर लाइन के भरोसे बैठा कोई भी अधिकारी मौके पर नहीं पहुंचा। महकमे की उदासीनता देख ग्रामीणों ने खुद ही आग पर काबू पाने का प्रयास किया, लेकिन उनकी इसी कोशिश ने उन्हें मौत के मुंह में धकेल दिया। यहां सवाल उठ रहा है कि अगर विभाग ने यहां फायर लाइन बनाई थी, तो आग बेकाबू क्यों हो गई और लाइन आग को आगे बढ़ने से क्यों नहीं रोक सकी। और अगर लाइन नहीं बनाई गई थी, तो फिर इस हादसे की जिम्मेदारी किसकी है।

हादसे के बाद गगवाड़ा के ग्रामीणों से लेकर पौड़ी तक के लोग इन सवालों के जवाब मांगने लगे हैं। वजह चाहे जो भी रही हो, लेकिन जब घटना के बाबत डीएम समेत वन विभाग के उच्चाधिकारियों से संपर्क की कोशिशें की गई, तो सभी के फोन आउट आफ कवरेज चल रहे थे।

अपणि-बोली-भाषा का बगैर न त अपणि उन्नति हवै कद और न ही समाज की। जु समाज अपणि-बोली भाषा-अर-रिती-रिवाज से शर्म करदू ऊ वैकू पतन कू सबसे बडू कारण छ।
 r.p. chamoli

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