उतराखंड राज्य विकास के साथ पहाड़ो की संस्कृति की ब्यथा
(सुदर्शन सिंह रावत कि रिपोर्ट ) | उत्तराखंड के पहाड़ अब बुजर्ग हो गए हैं किसी ने ठीक ही कहा था कि पहाड़ो का पानी और जवानी अपने जन्म भूमि के काम नहीं आई आज सुंदर प्रकृति से भरपूर सुन्दरता व सीढ़ी नुमा खेत सब बुजर्ग हो गए है आज से 20 - 25 साल पहले खेतों की उर्वरता बनाए रखने के लिए पहले गोठ लगती थी पचीस पचास पशुओं को रातभर एक ही खेत में बांधकर रखा जाता था. इस प्रकार खेत बदल बदल कर गोठ लगती थी अब गोठ प्रथा भी लगभग ख़त्म हो चुकी है. अधिक मेहनत और कम लाभ के चलते भी कुछ प्रथाएं ख़त्म हुई हैं, इसके विकल्प में मनीऑर्डर अर्थव्यवस्था आ जाने से लोगों का जीवन थोड़ा आसान और आराम तलब हो गया. दिनभर खेतों में मेहनत करने के बजाय सीधे दूकान से राशन लाना सभी को अच्छा लगता है और जब आदमी के पास फ़ुर्सत ज़्यादा हो तब फ़ैशन उसके पास ख़ुद ब ख़ुद चला आता है. लेकिन यह फ़ैशन उत्तराखंड की सांस्कृतिक ह्रास का पर्याय बनती जा रही है पहले गौमाता की पूजा होती आज लोग पशुओं को जंगलो में छोड़कर शहरो में रोजगार के लिए पलायन कर रहे है जिन लोग ने पहाड़ो में जन्म लिया आज वह पलायन कर रहे है और बहार के लोग पहाड़ो में बसने के तैयार है साठ वर्ष पूर्व उत्तराखंड में मैदानी जीवन की दस्तक बहुत कम या न के बराबर थी. नौकरियों पर तब बहुत कम लोग थे, इसलिए पहाड़ का पारंपरिक रहन-सहन और सांस्कृतिक ढांचा अपना मूल स्वरूप नहीं छोड़ पाया था. इससे पहले पहाड़ी जीवन के रहन-सहन में थोड़ी बहुत तब्दीली धीरे धीरे होने परिवर्तन लगा बाद में जब पहाड़ के लोग मैदानों में नौकरियों पर आने लगे और मैदानों में रूखा सूखा खाकर छुट्टियों के दौरान गांवों में बन ठन कर जाने लगे. लोगों के बीच थोड़ा बहुत रहन-सहन का तौर तरीका बदलने लगा. मदानो से आने वाला आदमी घर भर के सदस्यों के लिए नए नए कपड़े व साबुन, तेल, टूथपेस्ट आदि भी. 1962 में भारत चीन की लड़ाई के बाद पहाड़ों पर तेज़ी से मोटर सड़कों का निर्माण शुरू हुआ. इसी बीच हिमालय के अग्रिम हिस्सों में फ़ौजी चौकियां बननी भी शुरू हुई. देश के कई हिस्सों के सैनिक पहाड़ों पर मोर्चा संभालने के लिए आए. बाहरी लोगों की आमदरफ़्त बढ़ने के साथ साथ नए नए व्यवसाय व व्यापार भी बढ़े. आज़ादी के बाद पहाड़ी कस्बों में पंजाबी शरणार्थी भी अपना कारोबार जमा चुके थे. ट्रांजिस्टर क्रांति के बाग पहाड़ी गांवों में जगह जगह फ़िल्मी गाने बजने शुरू हुए. छुट्टी से घर लौटते हुए हर पहाड़ी फ़ौजी के कंधे पर बजता हुआ ट्रांजिस्टर लटका रहता था. यही वह दौर था जब पहाड़ी घसियारिनों ने पारंपरिक लोकगीतों को छोड़कर फ़िल्मी धुनें गुनगुनानी भी शुरू की. पहाड़ और मैदान के बीच आमोदरफ़्त बढ़ने के साथ पारंपरिक पोशाकों का महत्व भी कम होने लगा.95 वर्षिया बुजुर्ग श्री शिव राज सिंह रावत ग्राम उठिंडागावं नैनीडांडा गढ़वाल के मूलनिवासी कहना है की साठ वर्ष पुर्व लोग मिरजई, त्यूंखा, पटग्वा, अंगरखा, अचकन, फत्वी, गत्यूड़ी, तिकबंद, रेबदार अथवा चूड़ीदार पैजामा व बच्चों के सलदराज आदि का चलन था जो अब ख़त्म हो गया और इनकी जगह कोट पैंट पतलून कमीज़ ब्लाउज़ पैजामा आदि. पहाड़ों के बहुत व्यापक और विशालकाय सांस्कृतिक परिदृश्य को टीवी के छोटे परदे ने एकाएक ढक दिया. सस्ते और हल्के मनोरंजन ने पहाड़ी लोक-संस्कृति के मूल रंगो को बदरंग कर दिया. संक्रांति के दिन अब गांवों में ढोल व दमाऊ बजाने वाले अब नहीं रहे. हुड़का प्रचलन से बाहर हो गए है गया. ढोल सागर जानने वाले बहुत कम लोग रह गए सब दुर्लभ और शायद कुछ सालो बाद सुनने को नहीं मिलगा महीनों तक होली गाने का रिवाज अब टूट सा गया है. पहले बसंत पचंमी के दिन से गांव के पंचायती चौक में गीतों के झुमके शुरू हो जाते थे. अब ये प्रथा कुछ अब जौनसार के इलाकों को छोड़कर और कही नहीं दिखाई देती. गर्मियों के दिनों में पहाड़ों में लगने वाले कौथीग कि जगह ठेठ बाज़ारी मेले लगने लगे है आज जो . आर्थिक स्तर पर जो परिवर्तन हुए उनका सीधा असर भी पहाड़ी जीवन के रहन-सहन पर पड़ा. यदि समय रहते उत्तराखंड सरकार व हम सभी लोगो को बिरासत में मिली सस्कृति को नहीं बचा पाए तो पश्ताचाप के अलावा हमारे पास कुछ नहीं बचेगा ?
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