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Sunday, February 28, 2010

पहाड़ी नारी की यह संघर्षपूर्ण ज़िंदगी !

में नारी की भूमिका हमेशा ही पुरुषों से अधिक महत्वपूर्ण रही है। खेतों में कमरतोड़ मेहनत करना, पीठ पर लकड़ी का भारी बोझ लादकर उंचे नीचे पहाड़ों पर चढ़ते उतरते हुए अपने घर पहुंचना, घने और खतरनाक जंगलों के बीच जाकर अपने पशुओं के चारे के लिये भटकना और यही नहीं जंगली खूंखार वन्य प्राणियों से भी जूझना और बचकर निकलना, घर में बच्चों का पालन पोषण करना, और पूरे परिवार की चिंता में अपने को समर्पित कर देना लगभग हर पहाड़ी स्त्री का यह नियमित और बेरहम जीवनचक्र है। सदियों से इसने कष्ट ही भोगे हैं और जब उसके सुख भोगने का समय आया तो वह मौजूद नहीं रही। सुख भोगने या देखने वाली स्त्रियों की संख्या पहाड़ में बहुत ही कम है। पहाड़ी नारी की यह संघर्षपूर्ण जिंदगी कुछ आसान भी लगती, अगर हर औरत को अपने पति का साथ मिलता। लेकिन पहाड़ के अधिकांश पुरुष रोजी-रोटी की व्यवस्था के लिये अपने परिवार से सैकड़ों मील दूर मैदानों में जाकर रहते हैं। कई दशकों से चली आ रही इस परिपाटी का आज भी कोई तोड़ नजर नहीं आता है। भले ही पहाड़ के जीवन की भयावह स्थितियों में सुखद बदलाव का रास्ता खुल रहा हो। जरा कल्पना कीजिए कि किसी स्त्री का पहाड़ में विवाह हुआ हो और उसके पति को अगले ही दिन अपनी रोजी के लिए या अपनी डयूटी के लिए जाना है तो दोनों को कैसा लगेगा? यहां तो ऐसा भी खूब हुआ है कि शादी हुई और सुहागरात की तो बात ही दूर है, दोनों ने एक दूसरे की शक्ल भी नहीं देखी और मिलन के इंतजार में लंबा समय गुजर गया। दोनों ही न तो परिवार का अनुभव कर पाए और न ही अपने समाज के बीच बैठ उठ पाए। पहाड़ के अधिकांश पुरुषों ने सेना में रहकर अपना जीवन यापन किया है। कुछ समय पहले तक तो इस नौकरी में रहने का इतना बड़ा अवसाद था कि कई-कई साल एक सैनिक अपने घर ही नहीं पहुंचा और उसकी प्रतीक्षा में उस यौवना ने अपने जीवन का लंबा सफर पति व्रत धर्म में और उसके विरह में ही काट लिया।
अनेक कवियों और लेखकों ने पहाड़ के इस पुरातन जीवन चक्र पर काव्यों और साहित्य की मानविक रचनाएं की हैं। पहाड़ की लोक कथाओं में बिछोह का वर्णन न मिले ऐसा हो ही नहीं सकता और जहां भी यह वर्णन मिलता है वह आदमी को अंदर से झकझोरता है। दुर्गम पहाड़ों की नारियों का जीवन हमेशा से संघर्ष और प्रेरणा भरा रहा है वह हंसते-हंसते दूसरों के लिए सारे दुख सहती है इस उम्मीद में कि वह एक दिन खुशनुमा सवेरा देखेगी। अपने पति के इंतजार में अपने यौवन के दिन गुजार देने वाली पहाड़ की इन स्त्रियों को लोककथाओं में जो स्थान मिला है वह काफी मार्मिक है और पहाड़ी स्त्री की व्यथा को व्याकुल बना देता है। एक दिन लंबी प्रतीक्षा को चीरते हुए रामी का पति उसके घर आया और वह उसे पहचान भी ना सकी। यह दृश्य पहाड़ के जीवन चक्र की एक ऐसी सच्चाई है कि न जाने कितनी रामी इसका घुट-घुट कर सामना करती हैं।
रामी (रामी बौराणी*) नाम की एक स्त्री एक गांव में अपनी सास के साथ रहती थी, उसके ससुर का देहांत हो गया था और पति बीरू देश की सीमा पर दुश्मन से मुकाबला करता रहा। दिन, सप्ताह और महीने बीते, इस तरह 12 साल गुजर गये। बारह साल का यह लंबा समय रामी ने जंगलों और खेतों में काम करते हुए, एक-एक दिन बेसब्री से अपने पति का इंतजार करते हुए बड़ी मुसीबत से व्यतीत किया।(*रामी बौराणी- बौराणी शब्द 'बहूरानी' का अपभ्रंश है)बारह साल के बाद जब बीरू लौटा तो उसने एक जोगी का वेष धारण किया और गांव में प्रवेश किया। उसका इरादा अपनी स्त्री के पतिव्रत की परीक्षा लेने का था। खेतों में काम करती हुई अपनी पत्नी को देख कर जोगी रूपी बीरु बोला-बाटा गौड़इ कख तेरो गौं च? बोल बौराणि क्या तेरो नौं च?घाम दुपरि अब होइ ऐगे,एकुलि नारि तू खेतों मां रैगे....जोगी- खेत गोड़ने वाली हे रूपमती! तुम्हारा नाम क्या है? तुम्हारा गांव कौन सा है? ऐसी भरी दुपहरी में तुम अकेले खेतों में काम कर रही हो?रामी- हे बटोही जोगी! तू यह जानकर क्या करेगा? लम्बे समय से परदेश में रह रहे मेरे पतिदेव की कोई खबर नहीं है, तू अगर सच्चा जोगी है तो यह बता कि वो कब वापस आयेंगे?जोगी- मैं एक सिद्ध जोगी हूँ, तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर दूंगा। पहले तुम अपना पता बताओ।रामी- मैं रावतों की बेटी हूँ। मेरा नाम रामी है। पाली के सेठों की बहू हूँ, मेरे श्वसुर जी का देहांत हो गया है, सास घर पर हैं। मेरे पति मेरी कम उम्र में ही मुझे छोड़ कर परदेश काम करने गये थे। बारह साल से उनकी कोई कुशल-क्षेम नहीं मिली है। पता नहीं वो कैसे हैं और कैसे रह रहे होंगे?जोगी रूपी बीरु ने रामी की परीक्षा लेनी चाही।जोगी- अरे ऐसे पति का क्या मोह करना, जिसने इतने लम्बे समय तक तुम्हारी कोई खोज-खबर नहीं ली। आओ तुम और मैं खेत के किनारे बुँरांश के पेड़ की छांव में बैठ कर बातें करेंगे।रामी- हे जोगी तू कपटी है तेरे मन में खोट है। तू कैसी बातें कर रहा है? अब ऐसी बात मत दुहराना।जोगी- मैं सही कह रहा हूँ, तुमने अपनी यौवनावस्था के महत्वपूर्ण दिन तो उसके इंतजार में व्यर्थ गुजार दिये, साथ बैठ कर बातें करने में क्या बुराई है?देवतों को चौरों, माया को मैं भूखों छौंपरदेSSशि भौंरों, रंगिलो जोगि छोंसिन्दूर कि डब्बि, सिन्दूर कि डब्बि, ग्यान ध्यान भुलि जौंलो, त्वै ने भूलो कब्बिपरदेSSशि भौंरों, रंगिलो जोगि छोंरामी- धूर्त! तू अपनी बहनों को अपने साथ बैठा। मैं पतिव्रता नारी हूँ, मुझे कमजोर समझने की भूल मत कर। अब चुपचाप अपना रास्ता देख, वरना मेरे मुँह से बहुत गंदी गालियां सुनने को मिलेंगी।ऐसी बातें सुन कर जोगी आगे बढ़ कर गांव में पहुँचा। उसने दूर से ही अपना घर देखा तो उसकी आंखें भर आईं। उसकी माँ आंगन की सफाई कर रही थी। इस लम्बे अंतराल में वैधव्य व बेटे के दूर रहने से माँ के चेहरे पर वृद्धावस्था हावी हो गयी थी। उसकी आंखें अपने बेटे के इंतजार में पथरा गई थीं।जोगी रूप में ही बीरु माँ के पास पहुँचा और भिक्षा के लिये पुकार लगायी।"अलख-निरंजन"कागज पत्री सबनां बांचे, करम नां बांचे कै नाधर्म का सच्चा जग वाला ते, अमर जगत में ह्वै ना.हो माता जोगि तै भिक्षा दे दे, तेरो सवाल बतालो....वृद्ध आंखें अपने पुत्र को पहचान नहीं पाई। माँ, घर के अंदर से कुछ अनाज निकाल कर जोगी को देने के लिये लाई।जोगी- हे माता! ये अन्न-धन मेरे किस काम का है? मैं दो दिन से भूखा हूँ, मुझे खाना बना कर खिलाओ। यही मेरी भिक्षा होगी।तब तक रामी भी खेतों का काम खत्म करके घर वापस आ गई। उस जोगी को अपने घर के आंगन में बैठा देख कर रामी को गुस्सा आ गया।रामी- अरे कपटी जोगी! तू मेरे घर तक भी पहुँच गया, चल यहाँ से भाग जा, वरना.....आंगन में शोर सुन कर रामी की सास बाहर आयी। रामी अब भी जोगी पर बरस रही थी।सास- बहू! तू ये क्या कर रही है? घर पर आये अतिथि से क्या ऐसे बात की जाती हैं? चल तू अन्दर जा।रामी- आप इस कपटी का असली रूप नहीं पहचानती। यह साधू के वेश में एक कुटिल आदमी है।सास- तू अन्दर जा कर खाना बना। हे जोगी जी! आप इसकी बात का बुरा न माने, पति के वियोग में इसका दिमाग खराब हो गया है।रामी ने अन्दर जा कर खाना बनाया और उसकी सास ने मालू के पत्ते में रख कर खाना साधु को परोसा।मालू का पात मां धरि भात, इन खाणा मां नि लौन्दु हाथरामि का स्वामि की थालि मांज, ल्याला भात में तब खोलों भातजोगी- ये क्या? मुझे क्या तुमने ऐरा-गैरा समझ रखा है? मैं पत्ते में दिये गये खाने को तो हाथ भी नहीं लगाउंगा। मुझे रामी के पति बीरु की थाली में खाना परोसो।यह सुनकर रामी अपना आपा खो बैठी।रामी- नीच आदमी! अब तो तू निर्लज्जता पर उतर आया है। मै अपने पति की थाली में तुझे खाना क्यों दूंगी? तेरे जैसे जोगी हजारों देखे हैं। तू अपना झोला पकङ कर यहां से जाता है या मैं ही इन्हें उठा कर फेंक दूँ?ऐसे कठोर वचन बोलते हुए उस पतिव्रता नारी ने सत् का स्मरण किया। रामी के सतीत्व की शक्ति से जोगी का पूरा शरीर बुरी तरह से कांपने लगा और उसके चेहरे पर पसीना छलक गया। वह झट से अपनी माँ के चरणों में जा गिरा। जोगी का चोला उतारता हुआ बीरू बोला-अरे माँ! मुझे पहचानो! मैं तुम्हारा बेटा बीरू हूँ। माँ!! देखो मैं वापस आ गया।बेटे को अप्रत्याशित तरीके से इतने सालों बाद अपने सामने देख कर माँ हक्की-बक्की रह गई। उसने बीरु को झट अपने गले से लगा लिया।बूढ़ी मां ने रामी को बाहर बुलाने के लिये आवाज दी।ओ रामि! देख तू कख रैगे, बेटा हरच्यूं मेरो घर ऐगे रामी भी अपने पति को देखकर भौंचक रह गयी। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा, क्योंकि आज उसकी वर्षों की तपस्या का फल मिल गया था।इस तरह रामी ने एक सच्ची भारतीय नारी के पतिव्रत, त्याग व समर्पण की एक अद्वितीय मिसाल कायम की।यह किसी एक पहाड़ी अबला की कहानी नहीं है पहाड़ में हजारों रामी अपने पति का इसी तरह से इंतजार करतीं हैं। पहाड़ों पर क्रमिक विकास का कुछ सकारात्मक असर दिखता तो है लेकिन इसे पूरी तरह से महसूस होने में अभी बहुत वक्त लगेगा। यह एक ऐसा लक्ष्य है जो कि तभी हासिल किया जा सकता है जब उत्तराखंड की सरकार रामी को अपना पात्र बनाकर काम करेगी। रामी और बीरू की दास्तान पहाड़ के विकास का जब तक एक मॉडल नहीं बनाई जाएगी तब तक दुर्गम पहाड़ों से ऐसी आवाजें आती रहेंगी जिनमें बिछोह क्रंदन और आस का कोई तोड़ नहीं होगा। पहाड़ों पर पैदा हुए साहित्यकारों और रचनाकारों ने जिस साहित्य की रचना की है वह उत्तराखंड की सरकार के लिए उससे अच्छा कोई एजेंडा नहीं हो सकता। सचमुच जब हम कर्मक्षेत्र से छुट्टी पाकर अपने पहाड़ की तरफ अपने कदम बढ़ाते हैं तो पहुंचने की जल्दी में खतरनाक रास्तों का कोई भी डर नहीं सताता। यह उस प्रतीक्षा का एक कौतुक भरा रूप है जो हमारे लिए की जा रही होती है। आखिर पहाड़ और उसके दुर्गम रास्ते पहाड़ के पुरुष और नारी को सदा से संघर्ष की एक लौ बनाते और दिखाते आए हैं यहां विकास की भी जरूरत है और पहाड़ के मूल चरित्र को कायम रखने की भी जरूरत है, क्योंकि यही सच है जो हमें अपनी प्रगति के लिए प्रेरित करता है और अपने मिलन की प्रतीक्षा भी कराता है।
lekhak Hem Pant
swatantraawaj.com se sabhar
http://garhwalbati.blogspot.com

1 comment:

  1. thats true,,,,, aapki kosis lajbab hai....... pls jari rakhiyega....

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thank for connect to garhwali bati

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