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राजीव जोशी | ऐसे कई पशुपालक है, जिन्हें रसोई गैस सिलेंडरों की बढ़ती हुई कीमतों से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। यही नहीं उन्हें गैस के सिलेंडर के लिए न तो लाइन लगानी पड़ती है और न ही सिलेंडर में गैस खत्म होने की समस्या से जूझना पड़ता है। फर्क पड़े भी तो क्यों, आखिर उनके घर में गैस चूल्हा गोबर गैस प्लांट से जो जलता है। यह सच है कि रसोई गैस सिलेंडरों की लगातार बढ़ती कीमतों ने पर्वतीय क्षेत्र में गोबर गैस प्लांटों में नई जान डाल दी है।
एक समय था जब पर्वतीय क्षेत्रों में गोबर गैस प्लांट को लेकर ग्रामीणों में काफी क्रेज था, लेकिन जैसे-जैसे रसोई गैस सिलेंडर पहाड़ों में चढ़ते गए, गोबर गैस प्लांट बंद होते चले गए। गोबर गैस प्लांट बंद होने के साथ ही ग्रामीण पशुपालन से भी विमुख होते चले गए व एक स्थिति ऐसी भी आ गई कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी लोग दूध-दही खरीदने लगे। लेकिन, रसोई गैस की लगातार बढ़ती कीमतों के चलते अब गांव की पगडंडियों पर मवेशियों की तादाद बढ़ने लगी है। ग्रामीण रसोई गैस सिलेंडरों की निर्भरता छोड़ अपने गोबर गैस प्लांटों को पुनर्जीवित करने लगे हैं।
पिछले 23 वर्षो से निजी गोबर गैस प्लांट चला रहे यहां शिवपुर निवासी टीकाराम केष्टवाल की मानें तो यदि सरकार की ओर से पूर्व में ही ध्यान दिया जाता तो आज सरकार की ओर से लगाए गए गोबर गैस प्लांट बंद नहीं पड़े होते। उन्होंने बताया कि उनकी ओर से वर्ष 1987 में करीब 20 हजार की लागत से गोबर गैस प्लांट स्थापित किया गया, जिसकी गहराई, लंबाई व चौड़ाई करीब 12 फुट थी। उन्होंने बताया कि जिस वक्त उन्होंने प्लांट लगाया, उस दौरान इस प्लांट पर कोई सरकारी योजना नहीं थी। उस वक्त भले ही यह खर्चा काफी अधिक लगा हो, लेकिन आज घर में न तो रसोई गैस सिलेंडर की जरूरत है और न ही अन्य किसी ईधन की। कोई भी मौसम हो, प्लांट से निरंतर गैस मिलती रहती है।
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क्या थी सरकारी प्लांट की खामियां
टीकाराम केष्टवाल के घर के समीप ही एक अन्य गोबर गैस प्लांट लगा है, जो बंद पड़ा है। दोनों प्लांटों में अंतर महज यही है कि श्री केष्टवाल ने अपनी लागत से प्लांट लगाया, जबकि उनके पड़ोसी नरेंद्र चौहान व गायत्री देवी ने सरकारी योजना से प्लांट लगाया। श्री चौहान व गायत्री देवी ने बताया कि उत्तराखंड राज्य गठन के बाद 'उरेडा' ने उनकी भूमि पर गोबर गैस प्लांट लगाया, लेकिन अगले दो-तीन वर्षो बाद ही प्लांट बंद हो गया। उनका कहना था कि उनके पास आज भी पर्याप्त पशु हैं, लेकिन सरकारी प्लांटों का आकार काफी छोटा है, जिसमें पर्याप्त गैस नहीं बन पाती थी। उनका कहना है कि आज भी यदि उरेडा उनके प्लांटों का आकार बढ़ा दे तो वे भी उनकी भी रसोई गैस सिलेंडरों पर निर्भरता समाप्त हो जाएगी।
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