कोटद्वार (गढ़वाल)। मानव जीवन शैली में बदलाव या विकास की अंधी दौड़ का खामियाजा। घर-आंगन में फुदकने वाली जिस 'गौरेया' ने पक्षी विशेषज्ञ डा. सलीम अली की जीवनधारा ही बदल डाली, आज उसी 'गौरेया' का जीवन संकटों से घिर गया है। स्थिति यह है कि जो घर-आंगन कभी गौरेया की चहचहाट से गूंजते थे, आज सूने पड़े हैं।
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, देश के किसी भी कोने में चले जाइए 'गौरेया' की चहचहाट हर जगह सुनने को मिलेगी। मानव समाज के बीच रहने वाली इस नन्हीं चिड़िया के व्यवहार के कारण ही वैज्ञानिकों ने इसे 'पेशर डोमेस्टिक' नाम दिया। स्लेटी चोंच, काला कंठ, ऊपरी सीना, कत्थई गुद्दी व भूरी अग्रपीठ लिए नर गौरेया, जबकि धारियांरहित स्लेटी-सफेद अधर भाग व धारीदार भौंह लिए मादा गौरेया अब दूर-दूर तक नजर नहीं आती। कहना गलत न होगा कि कुछ वर्ष पूर्व तक घरों व खेतों में भारी तादाद में दिखने वाली गौरेया करीब-करीब विलुप्त हो चुकी है। विशेषज्ञ गौरेया की विलुप्ति के पीछे मानव जीवन शैली में आए बदलावों को सबसे अहम मानते हैं। दरअसल, पुराने भवनों में आंगन व झरोखे हुआ करते थे, जो गौरेया के वासस्थल बनते थे, लेकिन आज के भवनों में झरोखे तो दूर आंगन तक नजर नहीं आते हैं। इसके अलावा खाद्य पदार्थो में रसायनों की मिलावट, फसलों में कीटनाशकों के प्रयोग ने भी गौरेया के जीवन पर संकट के बादल घेर दिए। डा. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल हिमालयन राजकीय स्नातकोतर महाविद्यालय में जंतु विज्ञान की विभागाध्यक्ष डा. कुमकुम रौतेला की मानें तो गौरेया की विलुप्ति में सबसे बड़ा योगदान मानव समाज का ही है। उन्होंने बताया कि 'गौरेया' लोगों के घर-आंगन अथवा घरों से सटे पेड़ों पर अपना घोंसला बनाती थी। साथ ही घरों व खेतों से दाना भी चुगती थी लेकिन आज भवनों की निर्माण शैली बदल गई है। साथ ही खेतों के स्थान पर मकान खड़े हो गए हैं। खेतों में भी कीटनाशक का प्रयोग हो रहा है, जो कि 'गौरेया' के लिए घातक है।
लैंसडौन वन प्रभाग के प्रभागीय वनाधिकारी नरेंद्र सिंह चौधरी भी स्वीकारते हैं मानव को ऋतुओं व मौसम परिवर्तन की जानकारी देने वाली 'गौरेया' मानव की अपनी कमियों के चलते विलुप्ति के कगार पर खड़ी है। उन्होंने कहा कि यदि समय रहते 'गौरेया' के संरक्षण को प्रयास न किए गए, तो वह दिन दूर नहीं जब 'गौरेया' कहानियों में सिमट कर रह जाएगी। उन्होंने लोगों से घरों में छांव वाले स्थान पर मिट्टी के चौड़े मुंह वाले बर्तन में पानी रखने व लकड़ी के घोंसले टांगने की अपील की।
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