उत्तरकाशी: सीमांत जनपद में एक बार फिर मंगसीर की बग्वाल की तैयारियां शुरू हो गई है। इस त्यौहार को जिले के विभिन्न ग्रामीण इलाकों में अनूठे तरीके से मनाया जाता है। लोकपर्व इस बार 13 व 14 दिसंबर को मनाया जाएगा। आम दीपावली के एक माह बाद मनाने के पीछे किवदंती है कि शिरोमणी बीर भड़ माधव सिंह भंडारी ने चौदवीं सदी में तिब्बत पर फतेह की थी।
इन दिनों गांवों में खेती के काम लगभग निपट गए हैं। अब उत्सव का माहौल बनने लगा है और सबको मंगसीर की बग्वाल का इंतजार है। इसके लिए देवी देवताओं की डोलियों की सजावट होने लगी है। ढोली ढोल की डोरियों को कसने लगे हैं। ब्याहताएं इस त्यौहार के लिए मायके जाने को तैयार हैं। जहां उनकी आवभगत का इंतजाम किया जा रहा है। नगर और कस्बाई इलाकों को छोड़ दें तो पूरे ग्रामीण क्षेत्र में कुछ ऐसा ही नजारा है। रवांई के गैर, गंगटाड़ी व कुथनौर गांवों में इस त्यौहार का उल्लास देखते ही बनता है। इन गांवों में लकड़ी का विशाल टावरनुमा ढांचा खड़ा किया जाता है, इसे देवलांग कहा जाता है। जिसके चारों ओर तेजी से आग पकड़ने वाले चीड़ के छिलके बांधे जाते हैं। त्यौहार के दिन रात्रि को विशेष पूजा अर्चना के बाद इस ढांचे पर आग लगाई जाती है। फिर हजारों लोग परंपरागत रासो और तांदी नृत्य करते उसके चारों ओर झूमते हैं। इसके साथ ही लोग भैला घुमाकर भी ढोल दमाऊं की थाप पर नृत्य करते हैं। धनारी क्षेत्र के पुजार गांव में भी मंगसीर की बग्वाल इसी तरह से मनाई जाती है। इस तरह के आयोजनों के लिये तैयारियां भी इन दिनों पूरे जोरों पर चल रही है।
मान्यताएं भी जुड़ी हैं
उत्तरकाशी : मंगसीर की बग्वाल मनाने के पीछे विभिन्न मान्यताएं भी जुड़ी हैं। लेकिन प्रमुख तौर पर यही माना जाता है कि चौदहवीं सदी में गढ़वाल पर तिब्बत की ओर से आक्रमण हुआ था। इसमें माधो सिंह भंडारी की अगुआई में राजा ने सेना भेजी। माधो सिंह जब शत्रु को खदेड़कर लौटे तो उनकी विजय की खुशी में पूरे गढ़वाल में इस बग्वाल का आयोजन किया गया।
'जनपद में शहरी क्षेत्र बहुत कम है जबकि अधिकांश ग्रामीण क्षेत्र ही है जहां परंपराएं अब भी किसी न किसी रूप में जिंदा हैं, इन्हें सहेज के रखा जाना चाहिये'-जयप्रकाश राणा, संस्कृतिकर्मी।
jagran.com se sabhar
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