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उत्तराखंड सरकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपने आप को चाहे जितना भी प्रगतिशील कहे लेकिन सचाई तो यह है की राज्य सरकार राज्य निर्माण के दस साल बाद भी पुस्तकालय अधिनियम तैयार नहीं कर पाई। ऐसे में परिनियमावली नहीं बनी और न ही पद सृजन हो पाया। अब हाल यह है कि राज्य के नब्बे फीसदी कॉलेज लाइब्रेरियन विहीन हैं। इतना ही नहीं राज्य की विधानसभा और सचिवालय तक के पुस्तकालयों में पर्याप्त स्टाफ नहीं है। वहीं, जिला व राज्य स्तर पर शुरू किए जाने वाले पुस्तकालय भी अधिनियम नहीं होने के कारण आज तक स्थापित नहीं हो पाए।
उत्तराखंड को शिक्षा के हब के रूप में प्रचारित किया जाता है, लेकिन जमीनी हकीकत पर गौर करें तो उच्च शिक्षण संस्थानों की अहम कड़ी पुस्तकालयों के लिए कोई अधिनियम तक राज्य में नहीं है। बिना लाइब्रेरियन के नब्बे फीसदी कॉलेजों में पुस्तकों का रखरखाव व ऑटोमेशन भगवान भरोसे है। राज्य के छात्र इसके खामियाजा भुगत रहे हैं।
विषयों की पुस्तकों समेत शोध छात्रों को संदर्भ ग्रंथों तक के लिए भटकना पड़ता है। आम आदमी व छात्रों के लिए जिला व राज्य स्तर पर शुरू किए जाने वाले पुस्तकालयों की स्थापना का रास्ता भी इसी के चलते नहीं खुल पाया है। स्थिति का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि माननीयों के सबसे नजदीकी ठिकानों विधानसभा और सचिवालय के पुस्तकालय भी कर्मचारियों की राह तक रहे हैं।
परेशानी जो हो रही हैं
पुस्तकों के रखरखाव में दिक्कत व पुस्तकालयों को ऑटोमेशन ।
कॉलेज व शोध छात्रों को भी पुस्तकें मिलने में आती हैं दिक्कत।
प्रावधान के तहत जिला व राज्य स्तर पर समृद्ध पुस्ताकलयों की कमी।
यूजीसी व नैक आदि के निरीक्षण में भी करना पड़ रहा परेशानी का सामना।
आम आदमी के लिए पुस्तकें पढ़ने की सुविधा नहीं होने से भी परेशानी।
'राज्य के नब्बे फीसदी कॉलेजों में लाइब्रेरियन नहीं हैं। पहले इन पदों को मिनिस्टीरियल कैटगरी के तहत भरा जाता था, लेकिन यूजीसी ने बाद में इन्हें शैक्षणिक श्रेणी में शामिल किया। ऐसे में नीति नहीं बन पाने के कारण नियुक्तियों पर रोक लगी है। शासन व सरकार को इस बारे में कई बार कह चुके है, लेकिन अभी तक कोई व्यवस्था नहीं हुई है।'
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