मकर संक्रांति पर सरकार ने गाजे-बाजों के साथ चमोली जिले के गैरसैंण में विधानसभा भवन का शिलान्यास भले कर लिया हो, मगर राज्य आंदोलन के दौरान से ही गैरसैंण को लेकर आम जनता ने जो सपना देखा, वह अब भी हकीकत से कोसों दूर है। सच्चाई यह है कि गैरसैंण को लेकर सरकार की अब तक की पूरी कवायद में पहाड़ की चिंता कम और सियासी लाभ लेने की रणनीति ज्यादा नजर आती है। यही वजह है कि उत्तारायणी पर गैरसैंण से पहाड़ के विकास का दम भरने वाली सरकार गैरसैंण को उत्ताराखंड की स्थायी या ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने तक का साहस नहीं जुटा पाई। यानी, जो वजूद में आने जा रहा है वह साल के 365 दिनों में से दो-चार दिन की राजनीतिक पिकनिक से ज्यादा कुछ नहीं होगा।
अगर आम जन के मन में यह सवाल उठ रहा है कि गैरसैंण में विधानसभा भवन का निर्माण व साल भर में विधानसभा का मात्र एक सत्र आयोजित होने से पहाड़ के आम जनमानस को आखिर क्या हासिल होने वाला है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं। साफ है कि गैरसैंण में शिलान्यास कार्यक्रम वहां ज्यादा से ज्याद तीन या पांच दिवसीय सत्र चलाने के लिए ढांचागत सुविधाएं जुटाने की कसरत से ज्यादा कुछ नहीं है। यह तथ्य प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से सभी सियासी दलों के बड़े नेता भी मान रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पिकनिक व्यवस्थापन की इस पूरी कवायद में अब तक गैरसैंण के जितने भी सरकारी दौरे हुए, वे सड़कों के जरिये नहीं बल्कि हवा में ही किए गए।
सूबे के राजनीतिक कर्णधार हों या फिर नीति-नियंता, हर किसी ने सुविधा संपन्न शहर देहरादून से सुदूर अंचलों में बसे गैरसैंण तक का सफर बदहाल सड़कों की हकीकत से गुजरने की बजाय उड़नखटोलों में बैठकर ही तय किया। यानी, गैरसैंण को लेकर सरकार की प्लानिंग व उसे जमीन पर आकार देने की पूरी कसरत में सदियों से अलग-थलग व उपेक्षित पहाड़ के दर्द को महसूस करने की जरूरत तक नहीं समझी गई। डेढ़ दशक पहले उपेक्षा के इसी भाव ने शायद पहाड़वासियों को 'आज दो अभी दो उत्ताराखंड राज्य दो' और 'गैरसैंण अब दूर नहीं' जैसे नारे बुलंद करने को मजबूर किया था। उपेक्षा की इसी पृष्ठभूमि से ही विकास को तरसते पहाड़ से अलग राज्य के गठन की मांग उठी। आंदोलन में मुठ्ठियां ताने हर आमोखास की आंखों में बस एक ही सपना था कि जब तक नीति-निर्धारक व कानून निर्माता पहाड़ में बैठकर पहाड़ की चिंता नहीं करेंगे, तब तक पहाड़ की तस्वीर व उनकी तकदीर बदलना मुमकिन नहीं। यही वजह थी कि उत्ताराखंड गठन के साथ ही गैरसैंण को नए राज्य की राजधानी बनाने की मांग भी आंदोलन का प्रमुख एजेंडा बनी। अफसोस इस बात का है कि राज्य बनने के 12 साल बाद भी सरकारें गैरसैंण को न तो राजधानी बना पाई और न राजधानी के रूप में स्वीकारने की हिम्मत ही जुटा पाई।
राज्य बनने के बाद से अब के बारह सालों में भाजपा और कांग्रेस, दोनों को सत्ता संभालने का लगभग बराबर वक्त मिला। दोनों को दो-दो बार सूबे की सत्ता मिली। स्थायी राजधानी तय करने के लिए बनाए गए दीक्षित आयोग की रिपोर्ट भी ठंडे बस्ते में है, मगर गैरसैंण के मुद्दे पर सियासी दलों की रहस्यमय खामोशी नहीं टूटी। क्षेत्रीय सरोकारों की तपिश से उपजा क्षेत्रीय दल उक्रांद भी सत्ता में भागीदार बनने पर अपने इस कोर एजेंडे से विमुख होता दिखाई दिया। बात चाहे पिछली भाजपा सरकार की हो या मौजूदा कांग्रेस सरकार की, दोनों में उक्रांद की किसी न किसी रूप में भागेदारी रही। वर्तमान कांग्रेस सरकार ने गैरसैंण में विधान भवन का शिलान्यास भले कर लिया, मगर उसकी यह कवायद राज्य आंदोलन के दौरान गैरसैंण को लेकर देखे गए सपने की अवधारणा से कोसों दूर दिखाई पड़ती है। जाहिर है उत्तारायणी पर हुआ यह शिलान्यास सत्तारूढ़ कांग्रेस की मंशा व राजनीतिक महत्वाकांक्षा दोनों पर ही सवाल खड़े करता है।
jagran.com se sabhar
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