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Wednesday, January 16, 2013

ईट-गारों के महल पर फिजूलखर्ची तो नहीं !

http://garhwalbati.blogspot.in

 देहरादून: गैरसैंण को स्थायी राजधानी या फिर ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने से पूरी तरह परहेज करते हुए सरकार ने मकर संक्रांति पर गैरसैंण में विधान भवन की आधारशिला तो रख दी, मगर सरकार की यह कवायद आर्थिक तंगहाली से जूझ रहे नवोदित राज्य के लिए भविष्य में बेवजह पड़ने वाले आर्थिक बोझ की ओर भी इशारा कर रही है। यही नहीं, पहाड़ के दुख-दर्द के प्रति व्यवस्था का उपेक्षित रवैया भी सरकार की इस कसरत से दूर होता नजर नहीं आ रहा।
राज्य गठन के 12 साल बाद पहली बार सूबे के सियासतदां व नीति-नियंताओं का जमावड़ा चमोली जिले के गैरसैंण में तीन नवंबर को कैबिनेट बैठक के दौरान नजर आया और फिर 14 जनवरी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने गैरसैंण में गाजे-बाजों के साथ विधान भवन, विधायक ट्रांजिट हास्टल, अधिकारी व कर्मचारी ट्रांजिट हास्टल की आधारशिला रखी, मगर इस समारोह में भी सरकार के नुमाइंदे गैरसैंण को स्थायी या ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने के मुद्दे पर खामोशी की चादर ओढ़े रहे। साफ है कि सरकार वर्ष भर तो दूर साल के तीन महीने भी सुदूरवर्ती गैरसैंण में बिताने के मूड में नहीं है। बस कुछ दिन पिकनिकनुमा सत्र रखकर पहाड़वासियों की भावना का पॉलिटिकल इनकैशमेंट भर करना चाहती है।
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि साल में सिर्फ तीन या पांच दिन विधानसभा सत्र के लिए गैरसैंण में ढांचागत सुविधाओं के विकास पर आखिर करोड़ों रुपये क्यों बहाया जा रहा है। राज्य गठन के 12 साल बाद भी सरकार एक अदद कमिश्नर तक को पौड़ी में नहीं बिठा पाई। राज्य के दुर्गम क्षेत्रों में डाक्टरों व शिक्षकों का अभाव अब भी बना हुआ है। यहां तक कि पहाड़ की सीटों से निर्वाचित विधायक भी चुनाव जीतने के बाद देहरादून की ओर से ही रुख करते नजर आ रहे हैं। चुनावी राजनीति में भी जनप्रतिनिधियों का यह पलायनवादी चेहरा उजागर हो चुका है।
ऐसे विधायकों की फेहरिस्त काफी लंबी है, जो 2012 के विधानसभा चुनाव में पहाड़ की अपनी परंपरागत सीटें छोड़कर मैदान व तराई क्षेत्रों से चुनाव लड़े। पहाड़ से चुनकर आए 90 फीसद नेताओं का रवैया पलायनवादी रहा है। ज्यादातर ने दून में घर-परिवार बसा लिए हैं। गैरसैंण पर भाजपा व कांग्रेस के दिग्गज अपनी सुविधानुसार बयानबाजी कर रहे हैं। गैरसैंण में पिकनिक व्यवस्थापन पर हामी भरने वाले तमाम सियासी दिग्गज गैरसैंण को राजधानी घोषित करना तो दूर ग्रीष्मकालीन राजधानी तक स्वीकारने को राजी नहीं हैं।
ऐसे में मात्र तीन या पांच दिन के लिए गैरसैंण में पिकनिक व्यवस्थापन से विकास से दूर व उपेक्षित पहाड़ का भला कैसे हो पाएगा। जाहिर है गैरसैंण में बैठकर पहाड़ के विकास का खाका तैयार करने व उसे धरातल पर लाने का काम जब तक वहीं से नहीं होगा, तब तक पहाड़ों का भला होने वाला नहीं है
jagran.com se sabhar

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