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Monday, December 28, 2009
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Thursday, December 24, 2009
प्यासों को फिर दिखाया सपना
पौड़ी गढ़वाल। पौड़ी शहर की प्यास शायद आने वाले तीन साल बाद ही बुझ पाएगी। जल निगम ने लाचारी व्यक्त की है कि वे फिलहाल आने वाले दो सालों तक नानघाट पेयजल योजना से पानी की सप्लाई शुरू नहीं पाएगा।
पौड़ी शहर को प्रतिदिन 5.18 एमएलडी पानी उपलब्ध कराने वाली महत्वाकांक्षी नानघाट पेयजल परियोजना का कार्य बेहद सुस्त चाल से चल रहा है। योजना के गत चार सालों मात्र 40 फीसदी कार्य ही पूरे हो पाए हैं और अब रिवाइज इस्टीमेट भेजने के बाद जल निगम ने अमूमन परियोजना कार्य बंद ही कर दिया है। उम्मीद है कि परियोजना की लागत 44 करोड़ से बढ़कर 79 करोड़ हो जाएगी। आम जनता का कहना है कि पौड़ी की समस्या को देखते हुए जल निगम अब मनमर्जी के स्टीमेट शासन को भेज रहा है और शासन में भी कोई ऐसा नहीं है कि निगम की मनमर्जी पर नकेल कस सके। पौड़ी में पानी की हालात पर नजर दौड़ाए तो यहां एक व्यक्ति मात्र दस लीटर पानी में काम चला रहा है। इस दस लीटर में न सिर्फ उसका परिवार खाना बना रहा है, बल्कि पूरा परिवार स्नान भी कर रहा है। आंकडे़ बताते हैं कि पौड़ी की करीब 60 हजार से अधिक की जनसंख्या मात्र 27 लाख लीटर पानी में गुजर बसर कर रही है। वर्ष 2003 में पौड़ी के वह सबसे बड़ा दिन था, जब 43.57 करोड़ की लागत से नानघाट पेयजल योजना का निर्माण शुरू हुआ। उस समय उम्मीद थी कि वर्ष 2006 में नानघाट का पानी पौड़ी पहुंच जाएगा, लेकिन अभी तक परियोजना का निर्माण मात्र 40 फीसदी ही पूरा हुआ और अब पौड़ी इसे स्वीकार कर चुकी है कि परियोजना को अधिकारी चट कर गए। बहरहाल जल निगम ने अब परियोजना की लागत बढ़ाकर दुगनी कर दी है और कार्य भी बहुत धीमा कर दिया है। अधिशासी अभियंता जल निगम आरजी सिंह का कहना है कि योजना का कार्य वर्ष 2006 तक पूरा होना था, लेकिन वन विभाग की सहमति न मिलने से परियोजना का निर्माण समय पर शुरू नहीं हो पाया और अब जल निगम पूरी मेहनत से कार्य कर रहा है। 79.15 किलोमीटर लंबी इस पेयजल योजना पर अभी तक 26 किलोमीटर तक कार्य हो चुका है, शेष 53.15 का निर्माण अभी बाकी है।
एसएसबी के निदेशक राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित
श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल)। सशस्त्र सीमा बल अकादमी श्रीनगर के निदेशक और महानिरीक्षक राजेन्द्र सिंह नेगी को उनकी उत्कृष्ट सेवाओं के लिए वर्ष 2009 के राष्ट्रपति पुलिस पदक से सम्मानित किया गया।
एसएसबी मुख्यालय दिल्ली में आयोजित एक भव्य समारोह में केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने नेगी को यह सम्मान प्रदान किया। नारायणबगड़ जिला चमोली के मौणा गांव में 12 दिसम्बर 1949 को जन्मे राजेन्द्र सिंह नेगी के नेतृत्व में सशस्त्र सीमा बल ने उत्तर पूर्वी राज्यों में उग्रवादियों के खिलाफ कारगर कार्यवाही की। श्री नेगी के ही नेतृत्व बीनातौली में एसएसबी के एक नए प्रशिक्षण केंद्र की स्थापना की गयी, जहां अन्य सुरक्षा बलों को भी प्रशिक्षण दिया जाता है। श्रीलंका में भारतीय सेना के साथ ऑपरेशन पवन में राजेन्द्र सिंह नेगी भारतीय दल के प्रथम पंक्ति के नायकों में शामिल रहे। श्रीलंका में उनके उत्तम कार्यो को देखते हुए ही नेगी को वर्ष 1990-91 में श्रीलंका अवार्ड से भी नवाजा गया। दिल्ली में राष्ट्रपति पुलिस पदक से सम्मानित होने के बाद श्रीनगर पहुंचने पर सशस्त्र सीमा बल अकादमी में राजेन्द्र सिंह नेगी का जोरदार स्वागत भी किया गया।
तीरंदाजी प्रतियोगिता के लिए राज्य की टीम चयनित
उत्तराखंड तीरंदाजी संघ के महासचिव जसपाल सिंह नेगी की देखरेख में आयोजित इस चयन ट्रायल में विभिन्न स्थानों से आए 20 तीरंदाजों ने प्रतिभाग किया। चयन ट्रायल में किए गए प्रदर्शन के अनुसार छह खिलाडिय़ों का राज्य की टीम के लिए चुना गया।
तीरंदाजी संघ के महासचिव जसपाल सिंह नेगी ने बताया कि चयन ट्रायल में कुमाऊं रेजीमेंट सेंटर रानीखेत के विक्रम सिंह, उम्मेद सिंह और चंद्रपाल सिंह क्रमश: पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे। गढ़वाल रेजीमेंट सेंटर लैंसडौन के नत्थी सिंह, प्रीतम सिंह और सतेंद्र सिंह क्रमश: चौथे, पांचवे और छठे स्थान पर रहे। चयन ट्रायल कोटद्वार के तीरंदाज संदीप ढुकलान, गढ़वाल राइफल लैंसडौन के रमेश प्रसाद, कुमाऊं रेजीमेंट सेंटर के अरंगम गुरूंग द्वारा कराया गया। इस मौके पर उत्तराखंड तीरंदाजी संघ के सह सचिव डीडीएस पटवाल, यशवंत नेगी, केशर सिंह असवाल समेत कई लोग मौजूद थे। संघ के पदाधिकारियों के अनुसार टीम में चयनित सभी खिलाड़ी 7 से 9 जनवरी तक गोवा में आयोजित इंडियन राउंड की अखिल भारतीय तीरंदाजी प्रतियोगिता में प्रदेश की ओर से प्रतिभाग करेंगे।
अमर उजाला से साभार
Monday, December 21, 2009
-पुरानी टिहरी डूबने के साथ ही डूब गई सांस्कृतिक गतिविधियां भी -मास्टर प्लान शहर में न वह रौनक न पहले जैसा मेलजोल |
-उत्तराखंड के इंटर व डिग्र्री कालेजों में दिया जायेगा अब पायलट प्रशिक्षण -उत्तराखंड के इंटर व डिग्र्री कालेजों में दिया जायेगा अब पायलट प्रशिक्षण - |
-18 से 42 वर्ष तक के अभ्यर्थी करेंगे भागीदारी-सात राज्यों से केआरसी में तीन जनवरी को शुरू होगी भर्ती रानीखेत(अल्मोड़ा): कुमाऊं रेजीमेंट रानीखेत में उत्तराखंड समेत सात राज्यों के अभ्यर्थियों के लिए आगामी 3 जनवरी से 111 पैदल वाहिनी (प्रादेशिक सेना) के विभिन्न पदों की भर्ती शुरू होगी। इस भर्ती में 42 वर्ष की उम्र तक के अभ्यर्थी हिस्सा ले सकेंगे। रानीखेत में होने वाली 111 पैदल वाहिनी (प्रादेशिक सेना) कुमाऊं की भर्ती के लिए शारीरिक परीक्षा की तिथि 3 जनवरी, 2010 निर्धारित की गई है। यह शारीरिक परीक्षा इस तिथि को कुमाऊं रेजीमेंट सेंटर रानीखेत में प्रात: 6:30 बजे से होगी। जीएसओ-1 (ट्रेनिंग) कैप्टन अनंत थापन ने बताया है कि शारीरिक दक्षता परीक्षा में उत्तीर्ण अभ्यर्थियों की डाक्टरी व कागजातों की जांच 4 से 6 जनवरी तक होगी। इस भर्ती में उत्तराखंड समेत उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, झाारखंड, छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश के अभ्यर्थी हिस्सा लेंगे। इसके लिए आयु सीमा 18 से 42 वर्ष निर्धारित की गई है। यह भर्ती सिपाही (सामान्य), क्लर्क, हाउस कीपर (सफाई वाला) व स्टीवर्ड (मेस वेटर) के पदों के लिए होगी। सिपाही के लिए शैक्षिक योग्यता 45 प्रतिशत अंकों के साथ मैट्रिक पास, क्लर्क के लिए 50 प्रतिशत अंकों के साथ इंटर पास, मेस वेटर के लिए दसवीं पास व हाउस कीपर के लिए आठवीं पास रखी गई है। अभ्यर्थियों से अपने साथ शैक्षिक प्रमाण पत्रों समेत निवास, चरित्र प्रमाण पत्र, 12 पासपोर्ट साइज फोटो, खेलकूद प्रमाण पत्र इत्यादि लाने को कहा गया है। - |
Friday, December 18, 2009
- उत्तराखंड में महत्व न मिलने से हाशिये पर गए बेडु, मेलू, घिंघोरा जैसे जंगली फल - स्वादिष्ट होने के साथ ही पौष्टिकता से भी लबरेज - लोक संस्कृति में रचे-बसे ये फल बन सकते हैं आर्थिकी का जरिया , देहरादून उत्तराखंड में महत्व न मिलने से बेडू, तिमला, काफल, मेलू, घिंघोरा, अमेस, हिंसर, किनगोड़ जैसे जंगली फल हाशिये पर चले गए। स्वादिष्ट एवं सेहत की दृष्टि से महत्वपूर्ण इन फलों को बाजार से जोडऩे पर ये आर्थिकी संवारने का जरिया बन सकते हैं, मगर अभी तक इस दिशा में कोई पहल होती नहीं दीख रही। उत्तराखंड में पाए जाने वाले जंगली फल यहां की लोकसंस्कृति में गहरे तक तो रचे बसे हैं, मगर इन्हें वह महत्व आज तक नहीं मिल पाया, जिसकी दरकार है। अलग राज्य बनने के बाद जड़ीबूटी को लेकर तो खूब हल्ला मचा, मगर इन फलों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझाी गई। देखा जाए तो ये जंगली फल न सिर्फ स्वाद, बल्कि सेहत की दृष्टि से कम अहमियत नहीं रखते। बेडू, तिमला, मेलू, काफल, अमेस, दाडि़म, करौंदा, जंगली आंवला व खुबानी, हिसर, किनगोड़, तूंग समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जिनमें विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट की भरपूर मात्रा है। विशेषज्ञों के अनुसार इन फलों की इकोलॉजिकल और इकॉनामिकल वेल्यू है। इनके पेड़ स्थानीय पारिस्थितिकीय तंत्र को सुरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं, जबकि फल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। बात सिर्फ इन जंगली फलों को महत्व देने की है। अमेस (सीबक थार्म) को ही लें तो चीन में इसके दो-चार नहीं पूरे 133 प्रोडक्ट तैयार किए गए हैं और वहां के फलोत्पादकों के लिए यह आय का महत्वपूर्ण स्र्रोत बन गया है। उत्तराखंड में यह फल काफी मिलता है, पर इस दिशा में अभी तक कोई कदम नहीं उठाए गए हैं। काफल को छोड़ अन्य फलों का यही हाल है। काफल को भी जब लोग स्वयं तोड़कर बाहर लाए तो इसे थोड़ी बहुत पहचान मिली, लेकिन अन्य फल तो अभी भी हाशिये पर ही हैं। जबकि, इन फलों को बाजार से जोड़ा जाए तो ये सूबे की आथर््िाकी का महत्वपूर्ण जरिया बन सकते हैं। जंगली फलों में पोषक तत्व काफल अन्य फलों की अपेक्षा 10 गुना ज्यादा विटामिन सी अमेस विटामिन सी खुबानी विटामिन सी, एंटी ऑक्सीडेंट आंवला विटामिन सी, एंटी ऑक्सीडेंट सेब विटामिन ए, एंटी ऑक्सीडेंट तिमला, बेडू विटामिन्स से भरपूर ''उत्तराखंड में मिलने वाले जंगली फल पौष्टिकता की खान हैं, लेकिन इन्हें अब तक महत्व नहीं मिल पाया। प्रयास यह हो कि इन्हें आगे बढ़ाया जाए। जंगली फलों की क्वालिटी डेेवलप कर इनकी खेती की जाए। इसके लिए मिशन मोड में वृहद कार्ययोजना बनाकर कार्य करने की जरूरत है। इससे जहां पारिस्थितिकी तंत्र मजबूत होगा, वहीं आर्थिकी भी संवरेगी'' - पद्मश्री डा.अनिल जोशी, संस्थापक शोध संस्था हेस्को। ''जंगली फल उपेक्षित जरूर रहे हैं, लेकिन अब इन्हें पर्याप्त महत्व दिया जाएगा। प्रथम चरण में मेलू (मेहल), तिमला, आंवला, जामुन, करौंदा, बेल समेत एक दर्जन जंगली फलों की पौध तैयार कराने का निर्णय लिया गया है। एनजीओ के जरिए यह नर्सरियों में तैयार होगी। आज नहीं तो कल इन फलों को क्रॉप का दर्जा मिलना है। फिर ये तो आर्थिकी के लिए अहम हैं।''- डा.बीपी नौटियाल, निदेशक, उद्यान विभाग उत्तराखंड।
स्व-राज्य तो मिल गया, लेकिन सु-राज का अभी इंतजार-
लंबे संघर्ष के बाद उत्तराखंड के लोगों को स्व-राज्य तो मिल गया, लेकिन सु-राज का अभी इंतजार है। कर्मचारी बेफिक्र हैं और अधिकारी मस्त। जनता बेचारी क्या करे, किससे गुहार लगाए। कुछ दिनों पहले राजधानी में ही एएनएम ने अस्पताल को किराए पर चढ़ा दिया, किसी को खबर नहीं लगी। कलेक्ट्रेट में मां की बजाए बेटा नौकरी करता रहा, यहां भी महकमे के जिम्मेदार लोगों ने साथी कर्मचारी के लिए 'सद्भावना' का परिचय दिया। वो तो डीएम के निरीक्षण के दौरान पोल खुल गई, वरना न जाने कब तक यह सब चलता रहता। ये तो राजधानी में सामने आए कुछ 'नमूने' हैं। ये हाल उस जगह का है, जहां स्वयं सरकार विराजमान है। अब दूर-दराज के इलाकों की बात करें। वहां तो स्थितियां पूरी तरह अनुकूल हैं, यही वजह है कि वहां 'अपनी मर्जी अपना राज' वाले अंदाज में काम चल रहा है। बिन बताए गैरहाजिर रहने का ट्रेंड तो अब पुराना पड़ चुका है। इससे भी आगे निकल मुलाजिमों ने नए तरीके ईजाद कर लिए हैं। नए तरीके ऐसे कि देखने वाले भी दंग रह जाएं। इसके लिए माह में एकाध बार से ज्यादा उपस्थिति दर्ज कराने की जरूरत नहीं है। चकराता क्षेत्र में शिक्षा विभाग के निरीक्षण में इन तरीकों का खुलासा हुआ। शिक्षकों ने स्कूल में बाकायदा ठेके पर बेरोजगारों को नियुक्त किया हुआ है। ये बेरोजगार ही उनकी जगह पर स्कूल का संचालन कर रहे हैं। अलग राज्य बनने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि जो खामियां अविभाजित उत्तर प्रदेश में थीं, उनसे मुक्ति मिल जाएगी, वजह यह मानी जा रही थी छोटी प्रशासनिक इकाइयां ज्यादा सक्रियता से जनता तक पहुंचेगी, लेकिन यह मंशा अभी तक फलीभूत न हो सकी। आखिर यह सब कब तक चलेगा। यदि नौ साल बाद भी जनता को उन्हीं समस्याओं से जूझाना पड़ रहा है तो यह गंभीर मसला है। अब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह स्वस्थ माहौल बनाए और ऐसे कर्मचारियों के खिलाफ कठोर दंडात्मक कार्रवाई करे, जिससे दूसरे भी सबक ले सकें। तभी जाकर अवाम का विश्वास बहाल हो सकेगा।
(नई टिहरी) सपनों के शहर में अपनों की तलाश
-पुरानी टिहरी डूबने के साथ ही डूब गई सांस्कृतिक गतिविधियां भी -मास्टर प्लान शहर में न वह रौनक न पहले जैसा मेलजोल नई टिहरी,---- ऐतिहासिक पुरानी टिहरी शहर डूबने के साथ ही कभी राष्ट्रीय स्तर तक इसकी पहचान के रूप में जानी जाने वाली सांस्कृतिक गतिविधियां भी खत्म हो गईं। इसके एवज में मास्टर प्लान के तहत बसाए गए नई टिहरी शहर में न तो पुरानी टिहरी जैसी रौनक है, न ही सांस्कृतिक और खेल गतिविधियां। कंक्रीट के इस नीरस शहर में मनोरंजन के लिए लोग तरस जाते हैं। पुरानी टिहरी, जिसे गांव का शहर भी कहा जाता था, में हर तरफ चहल-पहल रहती थी। सांस्कृतिक, खेल व अन्य सामाजिक गतिविधियों से गुलजार इस शहर में वक्त कब गुजर गया, पता ही नहीं चलता था। सांस्कृतिक कार्यक्रम, विभिन्न खेल प्रतियोगिताएं या मेले शहर में समय-समय पर कोई न कोई आयोजन होता रहता था। रामलीला, बसंतोत्सव, मकर संक्रांति पर लगने वाला मेला शहर की रौनक में चार चांद लगा देते थे। दीपावली या अन्य पर्वों पर सामूहिक कार्यक्रम शहर में होते थे, लेकिन बांध की झाील में पुरानी टिहरी के डूबने के साथ ही शहर की यह पहचान भी खत्म हो गई। पुरानी टिहरी के बाशिंदों को मास्टर प्लान के तहत बने नई टिहरी शहर में बसाया गया, लेकिन इसमें वह बात कहां, जो उस शहर में थी। न रौनक, न वह मेल- जोल और न ही वे सांस्कृतिक गतिविधियां, जब भी याद आती है, नई टिहरी में बस गए बुजुर्गों की आंखें नम हो जाती हैं। हों भी क्यों नहीं, आखिर नई टिहरी में पनप रही बंद दरवाजे की संस्कृति और आधुनिक रहन-सहन का बढ़ता चलन लोगों के दिलों की दूरियां बढ़ा रहा है। सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य इस शहर में वर्ष 2001 में उत्तरांचल शरदोत्सव हुआ। उसके बाद एकाध बार नगरपालिका द्वारा शरदोत्सव का आयोजन तो किया गया, लेकिन इसके बाद यहां न कोई सांस्कृतिक और न ही कोई सामूहिक कार्यक्रम आयोजित हुए हैं। मास्टर प्लान में कल्चर सेंटर का प्राविधान था, लेकिन इसके लिए भी कोई पहल अब तक नहीं हुई है। पुरानी टिहरी जैसा मेल-जोल भी यहां नहीं। वहां लोग पैदल घूमने निकलते, तो परिचितों से मुलाकात होती और फिर परिवार, समाज, राजनीति जैसे मसलों पर रायशुमारी भी होती, लेकिन नई टिहरी की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि यहां पैदल चलना भी आसान नहीं है, सीढिय़ों के इस शहर में चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते लोग हांफ जाते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक संस्था त्रिहरी से जुड़े महिपाल नेगी कहते हैं कि नई टिहरी में सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना होनी चाहिए। सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए समाज को आगे आना चाहिए। उन्होंने इस बात पर भी निराशा जताई कि अब लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत की जड़ों को भूलने लगे हैं।
Tuesday, December 15, 2009
पाली ग्राम (उत्तराखंड) में हिन्दी का जन्मा लाल कर शोध हिन्दी में पहली बार सबको दिखाई नई राह बने प्रथम भारतीय् जिन्होने डी.लिट हिन्दी में पाई नाम इस साहित्य्कार का था डा.पीताम्बर दत्त बडथ्वाल हिन्दी काव्य मे निर्गुणवाद पर कर गये वो शोध संस्कृत,अवधी,ब्रजभाषा अरबी व फारसी का था उनको बोध संत,सिद्ध,नाथ और भक्ति का किया उन्होने विश्लेषण दूर दृष्टि के थे वे परिचायक,निबंधकार और थे वे समी़क्षक हिन्दी को नया आयाम दे गया ये हिन्दी का सेवक कर गया दुनिया मे नाम हिन्दी का ये लेखक छात्र करते है शोध आज भी पढ उनकी रचनाये कह गये जो वो उसे लोग आज भी अपनाये अल्प आयु मे कह गया अलविदा वो हिन्दी का नायक दे गया धरोहर हमे गोरखबाणी और नाथ सिद्धो की रचनाओ का आज भले ही भूल चुका है उन्हे हिन्दी का साहित्य समाज हिन्दी का सम्मान करे|
Wednesday, December 9, 2009
पहाड़ी मड़ुआ का दीवाना हुआ यूरोप
पहाड़ी मड़ुआ का दीवाना हुआ यूरोप
-यहां बर्तन नहीं पत्थरों पर होता है भोजन
-चमोली जिले में हर साल जेठ (जून) महीने में होता है उफराईं देवी की डोली यात्रा का आयोजन -यात्रा के दौरान मौडवी नामक स्थान पर पत्थर पर दिया जाता है प्रसाद गोपेश्वर(चमोली)-गढ़वाल न सिर्फ देवभूमि के रूप में जाना जाता है, बल्कि यहां की रीतियों व परंपराओं की विशिष्टताओं के चलते इसे खास पहचान भी हासिल है। ऐसी ही एक अनूठी परंपरा के तहत नौटी-मैठाणा गांव के लोगों सहित मौडवी में उफराईं देवी की डोली यात्रा में भाग लेने वाले श्रद्धालु प्रसाद के रूप पका भोजन बर्तनों या पत्तलों में नहीं, बल्कि पत्थरों पर खाते हैं। उल्लेखनीय है कि क्षेत्रीय भूमियाल उफराईं देवी की डोली यात्रा हर वर्ष जेठ के महीने मैठाणी पुजारियों द्वारा निर्धारित शुभ दिन पर आयोजित की जाती है। इसके तहत ग्रामीण देवी की डोली को गांव के उत्तर-पश्चिम में ऊंची चोटी पर स्थित उफराईं के स्थान तक ले जाते हैं। यात्रा में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटती है। नौटी-मैठाणा गांव स्थित मंदिर से लगभग छह हजार फीट से अधिक की ऊंचाई पर स्थित उफरांई ठांक (स्थान) में स्थित मंदिर तक जाते हुए रास्ते में मौडवी नामक स्थान पर श्रद्धालुओं के लिए सामूहिक भोज तैयार किया जाता है। यहां से ठांक स्थित मंदिर में देवी के लिए भोग ले जाया जाता है। मंदिर में देवी को भोग लगाने व पूजा- अर्चना के बाद श्रद्धालु डोली के साथ वापस मौडवी आते हैं। यहां देवी के प्रसाद के रूप में तैयार दाल- चावल को शुद्धिकरण व देवी की डोली द्वारा परिक्रमा के बाद श्रद्धालुओं में बांटा जाता है। खास बात यह है कि भक्त इस प्रसाद को बर्तनों या पत्तलों पर नहीं, बल्कि पत्थरों पर रखकर खाते हैं। उल्लेखनीय है कि मुख्यालय से लगभग सत्तर किलोमीटर की दूरी पर तहसील कर्णप्रयाग के चांदपुर पट्टी स्थित ऐतिहासिक गांव नौटी-मैठाणा में भूमियाल उफराईं देवी का प्राचीन मन्दिर है। प्राचीनकाल में मंदिर के रखरखाव के लिए हिन्दू राजाओं ने गूंठ (महान मंदिरों के लिए स्वीकृत भूमि-राजस्व) का प्रावधान भी किया था। इस ऐतिहासिक मन्दिर में स्थापना के बाद से ही नित्य सुबह-शाम की पूजा अनवरत रूप से होती चली आ रही है। मंदिर के पुजारी भुवन चन्द्र व मदन प्रसाद ने बताया कि यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। उन्होंने बताया कि भूमियाल होने के चलते गांव के सभी घरों में किसी भी शुभ कार्य के आयोजन से पूर्व देवी मां की पूजा के लिए विशेष प्रावधान है। ग्रामीण पंकज कुमार ने बताया कि जून के महीने देवी की डोली यात्रा सांस्कृतिक विरासत होने के साथ-साथ वर्तमान में पर्यटन की दृष्टि से भी अनुकूल है। उनका कहना है कि वर्ष में एक बार देवी मां का प्रसाद पत्थर में खाने के लिए गांव के लोगों सहित बाहर नौकरी कर रहे ग्रामीण भी पहुंचते हैं। विशेष रूप से बच्चों व युवाओं को इस दिन का खासा इंतजार रहता है, क्योंकि उनके लिए यह अलग अनुभव होता है।पहाड़ से साभार .....
Tuesday, October 20, 2009
राजेंदर प्रसाद चमोली
नरु-बिजुला रची प्रेम कहानी
उत्तरकाशी। पहली नजर का प्यार, इकरार, प्यार को पाने की कोशिश, दो इलाकों की परंपरागत दुश्मनी, रार और फिर प्यार करने वालों की जीत, यानी हर वो मसाला इस कहानी में है, जो बालीवुड फिल्मों के लिए अनिवार्य माना जाता है। अंतर है तो सिर्फ इतना कि बालीवुड में बनने वाली फिल्में काल्पनिक कहानियों पर आधारित होती हैं, जबकि यह एक सच्ची कहानी है। बात हो रही है उत्तरकाशी के दो भाइयों नरु और बिजुला की। इन दोनों ने आज से करीब छह सौ साल पहले प्यार की खातिर कुछ ऐसा किया, जो प्रेम डगर पर पग धरने वालों के लिए नजीर बन गया।
कहानी शुरू होती है पंद्रहवीं सदी से। उत्तरकाशी के तिलोथ गांव में रहने वाले दो भाई नरु और बिजुला गंगा घाटी में अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। उन दिनों गंगा घाटी और यमुना घाटी के लोगों में परस्पर परंपरागत तौर पर दुश्मनी थी। इस बीच बाड़ाहाट के मेले ने नरु और बिजुला की जिंदगी बदलकर रख दी। दरअसल दोनों भाई मेले में गए थे, यहां उन्हें एक युवती दिखी, नजरें मिली और दोनों भाई उसे दिल दे बैठे। आंखों ही आंखों में युवती भी इकरार का इजहार कर वापस लौट गई। भाइयों ने युवती के बारे में पूछताछ की तो पता चला कि युवती यमुना पार रवांई इलाके के डख्याट गांव की रहने वाली थी। इसके बाद दोनों भाई डख्याट गांव पहुंचे तथा युवती को तिलोथ लेकर आए।
उधर, डख्याट से युवती को उठाने की सूचना मिलते ही यमुना घाटी रवांई के कई गांवों के लोग इकट्ठा हो गए। उन्हें यह मंजूर नहीं था कि गंगा घाटी वाला उनकी बेटी को उठा ले जाए। सैकड़ों लोग हथियार लेकर नरु- बिजुला को तलाशने लगे। उनका पीछा करते हुए यह लोग ज्ञानसू पहुंचे और रात को यहीं विश्राम किया। ज्ञानसू में रवांई के लोगों के जमा होने की सूचना मिलते ही नरु-बिजुला ने अपने गांव की महिलाओं को अन्न-धन के भंडार समेत डुण्डा के उदालका गांव की ओर रवाना कर दिया और दोनों खुद ही रवांई वालों से लोहा लेने ज्ञानसू पहुंच गए। बताया जाता है कि इस लड़ाई में नरु-बिजुला ने रवांई घाटी के सैकड़ों लोगों की पिटाई कर उन्हें भागने पर विवश कर दिया। इसके बाद दोनों ने अपनी पत्नी के साथ सुखद जीवन जिया। नरु-बिजुला की पीढि़यां आज भी तिलोथ गांव में रहती हैं। इस परिवार के बुजुर्ग बलदेव सिंह गुसाई ने जब यह कहानी सुनाई, तो उनकी आंखों की चमक और चौड़ा होता सीना गवाही दे रहा था कि उन्हें नरु-बिजुला का वंशज होने पर उन्हें गर्व है। उन्होंने बताया कि ज्ञानसू की लड़ाई गंगा-यमुना घाटी की अंतिम लड़ाई थी। एक खास बात यह कि तिलोथ में नरु-बिजुला का छह सौ साल पुराना चार मंजिला भवन आज भी सुरक्षित है। आठ हाल व आठ छोटे कक्ष वाले भवन की हर मंजिल के चारों ओर खूबसूरत अटारियां बनी हैं। इसकी मजबूती का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उत्तरकाशी में 1991 में आया भीषण भूकंप भी इसे नुकसान नहीं पहुंचा सका। हालांकि सरकार इस हवेली के संरक्षण को कुछ नहीं कर रही है। नरु-बिजुला परिवार के सतीश गुसांई ने इसे लेकर मई, 2009 में जिलाधिकारी उत्तरकाशी को पत्र दिया, जिस पर डीएम ने संस्कृति निदेशालय से इस ऐतिहासिक इमारत को संरक्षित करने जरूरत जताई। संस्कृति निदेशालय के सहायक निदेशक योगेश पंत ने पुरातत्व विभाग को आदेश दिए कि भवन का निरीक्षण कर आख्या भेजें, लेकिन पुरातत्व विभाग ने अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है।
Thursday, September 24, 2009
देहरादून अनिल चमोली। इतिहास में बावन गढ़ों के नाम से प्रसिद्ध गढ़वाल के वीरों की गाथाएं प्रदेश और देश की सीमाओं में नहीं बंधी हैं। गढ़ योद्धाओं की वीरता की गूंज फ्रास के न्यू चैपल समेत इटली से लेकर ईरान तक सुनी जा सकती है। क्रूर मौसम भले ही खेत में खड़ी फसलों को चौपट कर दे, लेकिन रणबाकुरों की फसल से यहा की धरती हमेशा ही लहलहाती रही है।
उत्तराखंड के टिहरी जिले के चंबा ब्लाक के गावों की भूमि इसकी तस्दीक करती है कि दुनिया के इतिहास को बदलने में इनकी कितनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यही वह भूमि है जहा प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान न्यू चैपल के नायक रहे विक्टोरिया क्रास विजेता शहीद गबर सिंह ने जन्म लिया था। चंबा कस्बे से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर बसे स्यूटा गाव को ही लें। यहा के रणबाकुरे लगभग एक सदी से लगातार विजय की नई इबारत लिख रहे हैं।
प्रथम विश्व युद्ध में गाव से 36 जाबाज शामिल हुए, जिसमें से चार शहीद हो गए थे। तब से लेकर आज तक इस गाव के अधिकाश युवक सेना में रहकर देश की सेवा में लगे हैं। वैसे तो गढ़वाल के कई क्षेत्रों से लोग प्रथम विश्व युद्ध से लेकर आजाद हिंद फौज और देश स्वतंत्र होने के बाद सेना में शामिल होकर देश की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन स्यूटा गाव इसलिए महत्वपूर्ण है कि एक ही गाव से एक बार में इतनी बड़ी संख्या में लोग युद्ध में शामिल नहीं हुए।
प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना की ओर से लड़ते हुए न्यू चैपल लैंड में गाव के जगतार सिंह, छोटा सिंह, बगतवार सिंह और काना सिंह शहीद हो गए। इस गाव के जाबाज सिपाहियों ने प्रथम ही नहीं द्वितीय विश्व युद्ध में भी जर्मन सेना को धूल चटाने में कोई कमी नहीं रखी। इस युद्ध में भी स्यूटा के 10 जवान शामिल हुए, जिसमें से बैशाख सिंह और लाभ सिंह रणभूमि में काम आए।
यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, 1962 के भारत-चीन युद्ध में शामिल होने वाले यहा के जाबाजों की संख्या 40 तक पहुंच गई थी। इस लड़ाई में सते सिंह पुंडीर शहीद हुए। अस्सी के दशक में तो 132 परिवार वाले गाव में हर परिवार से औसतन एक सदस्य सेना में था।
आज भी गाव में 45 लोग सेना के पेंशनर हैं और 25 लोग सेना और दूसरे सुरक्षा बलों में सिपाही से लेकर डीआईजी तक हैं। गाव के प्रधान रहे सेवानिवृत्त 80 वर्षीय कैप्टन पीरत सिंह पुंडीर बताते हैं कि 1946 में जब वे सेना में शामिल हुए तो तब तक द्वितीय विश्व युद्घ समाप्त हो चुका था। उन्होंने 1962, 1965 और 1971 की लड़ाई लड़ी और इसमें भी गाव के कई लोग शामिल हुए। स्यूटा गाव से लगे मंजूड़ गाव के भी 11 जाबाज प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हुए।
विक्टोरिया क्रास विजेता गबर सिंह नेगी इसी गाव के थे। इसी तरह से स्यूटा से कुछ ही दूर पर स्थित बमुंड पट्टी के जड़दार गाव के 16 रणबाकुरे प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हुए थे। इसलिए स्यूटा गाव को लोग आज भी फौजी गाव भी कहते हैं।
Tuesday, September 15, 2009
नैनीताल के फांसी गधेरे में लटकाए थे अनाम स्वतंत्रता सेनानी
Monday, September 14, 2009
*******कुंवर बर्तवाल जी की पुण्य तिथि पर श्रधा सुमन******
*******कुंवर बर्तवाल जी की पुण्य तिथि पर श्रधा सुमन******
चन्द्रकुंवर बर्तवाल
(20 अगस्त 1919- 14 सितम्बर 1947 ई.)
चन्द्रकुंवर बर्त्वाल का जन्म चमोली, गढवाल के मालकोटी ग्राम में हुआ। बचपन प्रकति की रम्य गोद में व्यतीत हुआ। उच्च शिक्षा देहरादून तथा प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई, किंतु स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण गांव लौट गए। वहीं अल्पायु में इनका स्वर्गवास हो गया। बर्त्वाल की कविताओं की प्रमुख विशेषता प्रकृति के साथ तादात्म्य, गहन सौंदर्य-बोध तथा कोमलता है। 1981 में इनकी रचना 'बर्त्वाल की कविताएं (तीन खण्डों में) प्रकाशित हुई।
मेघ कृपा
जिन पर मेघों के नयन गिरे
वे सबके सब हो गए हरे।
पतझड का सुन कर करुण रुदन
जिसने उतार दे दिए वसन
उस पर निकले किशोर किसलय
कलियां निकलीं, निकला यौवन।
जिन पर वसंत की पवन चली
वे सबकी सब खिल गई कली।
सह स्वयं ज्येष्ठ की तीव्र तपन
जिसने अपने छायाश्रित जन
के लिए बनाई मधुर मही
लख उसे भरे नभ के लोचन।
लख जिन्हें गगन के नयन भरे
वे सबके सब हो गए हरे।
स्वर्ग सरि
स्वर्ग सरि मंदाकिनी, है स्वर्ग सरि मंदाकिनी
मुझको डुबा निज काव्य में, हे स्वर्ग सरि मंदाकिनी।
गौरी-पिता-पद नि:सृते, हे प्रेम-वारि-तरंगिते
हे गीत-मुखरे, शुचि स्मिते, कल्याणि भीम मनोहरे।
हे गुहा-वासिनि योगिनी, हे कलुष-तट-तरु नाशिनी
मुजको डुबा निज काव्य में, हे स्वर्ग सरि मंदाकिनी।
मैं बैठ कर नवनीत कोमल फेन पर शशि बिम्ब-सा
अंकित करूंगा जननि तेरे अंक पर सुर-धनु सदा।
लहरें जहां ले जाएंगी, मैं जाउंगा जल बिंदु-सा
पीछे न देखूंगा कभी, आगे बढूंगा मैं सदा।
हे तट-मृदंगोत्ताल ध्वनिते, लहर-वीणा-वादिनी
मुझको डुबा निज काव्य में, हे स्वर्ग सरि मंदाकिनी।
प्रकाश हास
किस प्रकाश का हास तुम्हारे मुख पर छाया
तरुण तपस्वी तुमने किसका दर्शन पाया?
सुख-दुख में हंसना ही किसने तुम्हे सिखाया
किसने छूकर तुम्हें स्वच्छ निष्पाप बनाया?
फैला चारों ओर तुम्हारे घन सूनापन
सूने पर्वत चारों ओर खडे, सूने घन।
विचर रहे सूने नभ में, पर तुम हंस-हंस कर
जाने किससे सदा बोलते अपने भीतर?
उमड रहा गिरि-गिरि से प्रबल वेग से झर-झर
वह आनंद तुम्हारा करता शब्द मनोहर।
करता ध्वनित घाटियों को, धरती को उर्वर
करता स्वर्ग धरा को निज चरणों से छूकर।
तुमने कहां हृदय-हृदय में सुधा स्रोत वह पाया
किस प्रकाश का हास तुम्हारे मुख पर छाया?
Monday, September 7, 2009
देहरादून। चंडीगढ़ में हुई राष्ट्रीय इंटर जोन एथलेटिक्स चैंपियनशिप में उत्तराखंड ने अपने पिछले प्रदर्शन में सुधार करते हुए तीन गोल्ड सहित 11 पदक कब्जाए। पिछली बार सूबे को दो गोल्ड सहित पांच पदक ही मिले थे। इस बार भी महिला वर्ग में खास सफलता नहीं मिल पाई है।
प्रतियोगिता में जहां महाराष्ट्र व पश्चिम बंगाल के एथलीटों का दबदबा रहा, वहीं सूबे के एथलीटों ने अपने प्रदर्शन में सुधार किया। प्रमोद पाटनी ने 5000 मीटर दौड़, कुलदीप चौहान ने 3000 मीटर और जितेंद्र पाल ने 100 मीटर दौड़ में सूबे को स्वर्ण पदक दिलाए। इसके अलावा अन्य एथलीटों ने विभिन्न स्पर्धाओं में आठ रजत व कांस्य पदक भी हासिल किए। हालांकि, महिला वर्ग में एक भी पदक हाथ नहीं लगा। मूलभूत सुविधाओं के अभाव में सूबे के एथलीट अपना बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं। इसका असर चंडीगढ़ में भी साफ देखा गया। सिंथेटिक ट्रैक पर हुई राष्ट्रीय इंटर जोन एथलेटिक्स चैंपियनशिप में कई वर्गाें में यहां के एथलीटों के पिछड़ने के पीछे भी यही वजह रही। खासकर महिला वर्ग में जिसमें एक भी मेडल सूबे की झोली में नहीं आ पाया। राष्ट्रीय स्तर पर लंबी-मध्यम दूरी की स्पर्धाओं में जहां सूबे के एथलीट अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीं अन्य स्पर्धाओं में पिछड़ते जा रहे है। इसका मुख्य कारण मूलभूत सुविधाओं का टोटा। राज्य बनने के बाद भी अभी तक यहां सिंथेटिक ट्रेक का अभाव एथलीटों के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। हालांकि, खेल विभाग जल्द ही सिंथेटिक ट्रेक की बात कह रहा है, लेकिन यह कब तक संभव हो पाएगा, इसका कोई जवाब किसी के पास नहीं है। राज्य एथलेटिक्स एसोसिएशन के सचिव संदीप शर्मा का कहना है कि सूबे के एथलीटों में राष्ट्रीय स्तर पर छाने की कुव्वत है, मगर जब तक उच्च स्तरीय सुविधाएं नहीं मुहैया कराई जाएंगी, तब तक खिलाड़ियों के प्रदर्शन में निखार आना संभव नहीं है।
Sunday, September 6, 2009
विकासनगर (देहरादून)। कभी उत्तराखंड का गौरव समझा जाने वाला एशिया का सबसे ऊंचा चीड़ महावृक्ष अब सिर्फ इतिहास का हिस्सा मात्र रह गया है। 220 वर्षो तक हर तरह के मौसमी झंझावत झेले, लेकिन 8 मई 2007 को आयी तेज आंधी तूफान में अपने ऊंचे अस्तित्व को बचाए रखने में नाकाम चीड़ महावृक्ष अब सिर्फ डाटों के रूप में हमेशा के लिए अपनी याद छोड़ गया है।
टौंस वन प्रभाग पुरोला के देवता रेंज के भासला कंपार्टमेंट खूनीगाड़ में स्थित चीड़ महावृक्ष की लंबाई पर उत्तराखंड के लोगों को नाज था। बेहतर पालन पोषण में पल-बढ़ रहे चीड़ महावृक्ष को पूरे एशिया महाद्वीप में सबसे ऊंचे पेड़ का गौरव हासिल था। हनोल से पांच किमी. दूर स्थित देवता रेंज में चीड़ महावृक्ष की लंबाई 60.65 मीटर और गोलाई 2.70 मीटर थी। इस महावृक्ष की विशेषज्ञता यह थी कि इसमें मुख्य तने से लेकर ऊपर तक कोई शाखाएं नहीं थी, सिर्फ शीर्ष में कुछ शाखाओं का झुरमुट था, जिसके कारण इसकी सुंदरता देखते ही बनती थी। चीड़ महावृक्ष की लंबाई के चर्चे दूर-दूर तक पहुंचे तो वर्ष 1997 में भारत सरकार के वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इस चीड़ वृक्ष को एशिया महाद्वीप का सबसे लंबा महावृक्ष घोषित किया। जब इस वृक्ष ने यह गौरव हासिल किया, तब इसकी आयु 220 वर्ष के करीब हो चुकी थी। गैनोडर्मा एप्लेनेटस नामक रोग ने अपना प्रकोप इस कदर फैलाया कि महावृक्ष को अंदर ही अंदर खोखला कर गया, हालांकि गिरने से कुछ समय पहले आईएफआरआई के वैज्ञानिकों ने महावृक्ष के रोग मुक्त होने की पुष्टि की थी। एक तरफ अच्छी खासी आयु और उसमें महावृक्ष की ताकत कम होने लगी और आठ मई 2007 में आए आंधी तूफान का सामना करने की ताकत भी नहीं बची, लिहाजा तीन टुकड़ों में टूटकर चीड़ महावृक्ष इतिहास का हिस्सा बन गया। इसकी यादें बरकरार रखने के लिए विभाग ने महावृक्ष के तने को काटकर उसकी 22 डाटें बनाई। जिन्हें आज भी संग्रहालय के रूप में उसी स्थान पर संरक्षित रखा गया है, जहां कभी महावृक्ष अपनी लंबाई और सुंदरता के साथ तन कर खड़ा था। वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर इन डाटों को मोनो क्रोटाफास नामक औषधि से उपचारित किया जाता है, ताकि डाट सुरक्षित और संरक्षित रह सके।
देहरादून। अस्थायी राजधानी में नया सचिवालय, नया राजभवन और नए मुख्यमंत्री आवास व सचिव आवास के साथ ही अफसरों के लिए नया क्लब बनाया जा रहा है तो सुविधाजनक स्थान पर नया विधानसभा भवन बनाने से क्यों पीछे हटा जा रहा है। यदि सवाल अस्थायी राजधानी के मानकों का है तो इसे केवल विधानसभा भवन पर ही क्यों लागू किया जा रहा है।
जी हां, विधानसभा अध्यक्ष हरबंस कपूर की ओर से मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक को भेजे गए एक पत्र का लब्बोलुआब यही है। श्री कपूर ने नए विधानसभा भवन निर्माण की आवश्यकता को विस्तार से बताते हुए अनेक सवाल भी उठाए हैं। पत्र में कहा गया है कि सरकार के स्तर से नए विधानसभा भवन निर्माण की उपेक्षा की जा रही है। अस्थायी राजधानी का हवाला देकर इस अहम मसले को हाशिए पर खिसकाया जा रहा है। मानकों से इतर नए निर्माण हो रहे हैं। राजभवन, सीएम आवास व सचिव आवास समेत विभिन्न जरूरतों को देखते हुए अनेक नए निर्माण हो रहे हैं। यहां तक कि अफसरों के लिए क्लब के निर्माण की दिशा में भी पहल की जा रही है, जबकि यह बहुत आवश्यक प्रतीत नहीं होता है। इसके बावजूद राज्य के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण नए विधानसभा भवन के निर्माण को नजरअंदाज किया जा रहा है। पत्र में कहा गया है कि सरकार दूरगामी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए नए विधानसभा भवन के लिए ऐसा स्थल चिन्हित करे, जो हर दृष्टि से सुविधाजनक हो। वर्तमान विधानसभा भवन जरूरतों को पूरा करने लायक नहीं है। स्टाफ समेत समितियों को काम करने के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है। स्थानाभाव से अभी तक विधानसभा के अफसरों व कर्मियों के ढांचे को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। अधिकतर मौकों पर विधानसभा में धरना-प्रदर्शनों के चलते हरिद्वार मुख्य मार्ग पर जाम की स्थिति रहती है। इससे आम लोगों को कठिनाई का सामना करना पड़ता है। मौजूदा विधानसभा भवन में मंत्रियों के कार्यालय हैं, जबकि सचिवालय इससे कई किलोमीटर दूर है। अब राजधानी चयन आयोग की रिपोर्ट भी सरकार को मिल चुकी है और उसे सार्वजनिक भी किया गया है। रिपोर्ट में भी कई नए बिंदुओं की तरफ ध्यान इंगित किया गया है। एक अहम बिंदु यह भी है कि अस्थायी राजधानी के मानक के नाम पर नए विधानसभा भवन के निर्माण पर पेच फंसा है। इन मानकों को नजरअंदाज कर जब जरूरत के आधार पर अन्य निर्माण हो सकते हैं तो विधानसभा के नए भवन निर्माण को प्रभावी पहल होनी चाहिए। वर्तमान में यह राज्य की बड़ी जरूरतों में से एक है
देहरादून। मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने काशीपुर में महुआखेड़ा गंज औद्योगिक क्षेत्र में बिजलीघर का निर्माण कार्य जल्द करने के निर्देश दिए। काशीपुर से आए भारतीय जनता पार्टी के एक प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री से मुलाकात कर उन्हें विभिन्न समस्याओं की जानकारी दी। प्रतिनिधिमंडल ने बताया कि महुआखेड़ा में बिजलीघर नहीं बनने से उद्योगों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। उन्होंने काशीपुर में बाजपुर रेलवे क्रासिंग पर ओवर ब्रिज बनाने और केंद्र से प्रस्तावित आईआईएम की स्थापना की मांग की। मुख्यमंत्री ने कहा कि सरकार उद्योगों को सुविधाएं मुहैया कराने को वचनबद्ध है। औद्योगिक क्षेत्रों में मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएंगी। उन्होंने प्रतिनिधिमंडल की मांगों पर समुचित कार्यवाही का भरोसा दिलाया। प्रतिनिधिमंडल में भाजपा के निर्माण प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक राम मेहरोत्रा, जेएस नरूला, आनंद वैश्य, गिरीशचंद्र तिवारी, ईश्वरचंद्र गुप्ता, चौ. अनिल कुमार सिंह शामिल थे।
Thursday, August 20, 2009
Wednesday, August 12, 2009
-जयराम रमेश ने निशंक को दिलाया भरोसा
देहरादून। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक को राज्य की समस्याओं के निराकरण में सकारात्मक पहल का भरोसा दिलाया है।
बीजापुर गेस्ट हाउस में राज्यमंत्री ने सीएम से मुलाकात की। इस दौरान दोनों के बीच राज्य से जुड़े विभिन्न मसलों पर बातचीत हुई। डा. निशंक ने कहा कि राज्य को वन संरक्षण की एवज में विशेष सहायता दी जानी चाहिए। वन एवं पर्यावरण के मद में केंद्र स्तर पर लंबित 771 करोड़ की धनराशि तुरंत अवमुक्त होनी चाहिए। वन अधिनियम से संबंधित मामलों के निस्तारण को लखनऊ स्थित कार्यालय को देहरादून स्थानांतरित किया जाए। इसके साथ ही बीस हेक्टेयर तक के मामले सरकार को अपने स्तर पर निस्तारित करने का अधिकार मिले। गढ़वाल व कुमाऊं को जोड़ने वाले हरिद्वार-कोटद्वार-रामनगर मार्ग को स्वीकृत कराने में केंद्र सार्थक पहल करे। हरिद्वार में हिल बाईपास से मोतीचूर तक सड़क निर्माण को जल्द स्वीकृति दी जाए। उन्होंने कहा कि कैंपा के अंतर्गत राज्य सरकार द्वारा केंद्र को भेजे 595 करोड़ के प्रस्ताव पर भी स्वीकृति प्रदान की जाए। सीएम ने वन अधिनियम से स्वीकृति प्रक्रिया का सरलीकरण करने का भी अनुरोध किया। केंद्रीय राज्यमंत्री जयराम रमेश ने सीएम को बताया कि राज्य को 106 करोड़ की धनराशि तत्काल दी जा रही है। इसमें कैंपा के अंतर्गत 84 करोड़ भी हैं। वन क्षेत्र वाले राज्यों को वित्तीय सहायता देने के लिए 13वें वित्त आयोग अध्यक्ष से वार्ता हुई है और इस मामले में आयोग की संस्तुतियों के बाद ही विचार किया जाएगा। केंद्र सरकार राजाजी पार्क को सुरक्षित रखने के लिए देहरादून-मोहंड हाइवे पर एक टनल का निर्माण करने का प्रस्ताव तैयार करने जा रही है। हरिद्वार-कोटद्वार-रामनगर मोटर मार्ग का सर्वे वाइल्ड लाइफ इस्टीट्यूट अगले दो माह में पूरा कर लेगा। कार्बेट नेशनल पार्क में टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स में स्थानीय लोगों की सहभागिता सुनिश्चित की जाएगी। कार्बेट में माइक्रोलाइट एयर क्राफ्ट योजना भी शुरू की जाएगी। राज्य सरकार कार्बेट-लैंसडाउन-राजाजी पार्क के पश्चिमी क्षेत्र के कारिडोर के लिए योजना तैयार कर सकती है। उन्होंने कहा कि गंगा रिवर बेसिन परियोजना का लाभ उत्तराखंड को भी मिलेगा। हिमालयन ग्लेशियर पर अध्ययन के लिए वाडिया इस्टीट्यूट में एक सेंटर भी खोला गया है। उन्होंने लखनऊ के नोडल कार्यालय को देहरादून स्थानांतरित करने के लिए भी आश्वस्त किया। इस मौके पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण सचिव विजय शर्मा, महानिदेशक डा. दिलीप कुमार, अतिरिक्त महानिदेशक डा. गंगोपाध्याय, प्रदेश के मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे, सचिव वन अनूप बधावन, सचिव लोनिवि उत्पल कुमार सिंह तथा प्रमुख वन संरक्षक आरएसबीएस रावत भी मौजूद थे।
2050 तक विकसित देशों के समान होगी प्रति व्यक्ति आय
देहरादून। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा देश जिस गति से प्रगति कर रहा है, उसके मुताबिक 2050 तक देश में प्रति व्यक्ति आय विकसित देशों के बराबर हो जाएगी।
वह भारतीय वनसेवा के 2007-09 के लिए आयोजित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वन अकादमी के व्यावसायिक वानिकी प्रशिक्षण कार्यक्रम के 38वें दीक्षांत समारोह में बतौर मुख्य अतिथि बोल रहे थे। पर्यावरण एवं वन राज्यमंत्री जयराम रमेश ने कहा कि भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा गांवों में रहता है। जलवायु परिवर्तन ग्रामीणों पर सीधा असर डाल रहा है। ऐसे में वन आधिकारियों का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। समारोह को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के सचिव विजय शर्मा, वन महानिदेशक व भारत सरकार के विशेष सचिव डॉ. पीजे दिलीप कुमार ने भी संबोधित किया। इस मौके पर इंडियाज फॉरेस्ट एं़ड ट्री कवर कंट्रीब्यूशन एज ए कार्बन सिंक पुस्तिका का विमोचन भी किया गया। इसके पहले आईजीएनएफए के निदेशक आरडी जकाती ने अकादमी की रिपोर्ट पेश की। इस मौके पर प्रदेश के मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे, आईसीएफआरई के महानिदेशक जगदीश किशवान, प्रमुख मुख्य वन संरक्षक डॉ. आरबीएस रावत, एफआरआई के निदेशक डॉ. एसएस नेगी, आदि मौजूद रहे।
विश्वेश कुमार टॉपर
देहरादून: भारतीय वन सेवा के 2007-09 बैच में छत्तीसगढ़ काडर के विश्वेश कुमार ने 80.9 प्रतिशत अंक पाकर सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। उन्होंने दस पुरस्कारों पर कब्जा जमाया। मुख्य अतिथि मोंटेक सिंह अहलूवालिया व कार्यक्रम अध्यक्ष वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश ने उन्हें सम्मानित किया।
राज्य वन सेवा महाविद्यालय
का नया नाम सीएएसएफएस
देहरादून: एफआरआई परिसर में स्थित राज्य वन सेवा महाविद्यालय का नाम बदल गया है। अब इसे सेंट्रल एकेडमी फॉर स्टेट फॉरेस्ट सर्विसेज के नाम से जाना जाएगा।
सिविल सेवा की तर्ज पर गठित होगा वन सेवा का ढांचा
देहरादून, जागरण संवाददाता: भारतीय वन सेवा का ढांचा भारतीय प्रशासनिक सेवा की तर्ज पर गठित होगा। इतना ही नहीं कोई भी वन अधिकारी अपना काडर नहीं बदल सकेगा।
सोमवार को इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वन अकादमी के 38वें वार्षिक दीक्षांत समारोह के दौरान केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्रीजय राम रमेश ने यह बात कही। उन्होंने कहा कि केंद्र भारतीय वन सेवा का आधुनिकीकरण करने की तैयारी की जा रही है, ताकि उसे भी भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की तरह ही आकर्षक बनाया जा सके। जयराम रमेश ने कहा कि देश में पहली बार बजट में वन एवं पर्यावरण क्षेत्र में काम के लिए भारतीय वन अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद आईसीएफआरई को 100 करोड़ रु. प्रदान किए गए हैं। भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण एवं भारतीय जंतु सर्वेक्षण के 15-15 करोड़ रु. का प्रावधान किया गया है। कैंपा फंड को सुप्रीम कोर्ट की हरी झंडी मिल गई है। जिसके तहत कुल 11 हजार करोड़ रु. में से 871 करोड़ उत्तराखंड को मिलेंगे।
शिष्यों को नहीं खींच पाया सपनों का गुरुकुल
देहरादून। निजी कालेजों में प्रवेश के लिए छात्रों में मची मारामारी के बीच राज्य सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट दून विश्वविद्यालय के प्रति छात्रों में क्रेज नहीं दिखने से यूनिवर्सिटी प्रशासन चिंतित और हैरत में है। विश्वविद्यालय का मानना है कि प्रचार की कमी, नया विवि, 'दून' नाम से देहरादून में कई संस्थान होने और कुछ लोगों द्वारा इस यूनिवर्सिटी को निजी यूनिवर्सिटी प्रचारित किए जाने के कारण ऐसा हुआ है।
देहरादून के निजी कालेजों में प्रवेश के लिए छात्रों की लाइनें लगी हैं। छात्र डोनेशन देकर भी प्रवेश ले रहे हैं, जबकि दून विवि में फीस कम होने, निजी कालेजों से बेहतर सुविधाएं व फैकल्टी होने के बावजूद छात्र वहां प्रवेश में रुचि नहीं ले रहे हैं। राज्य सरकार द्वारा 2005 में शुरू किए गए इस विवि में लंबे समय की मशक्कत के बाद छह अगस्त को पहला सत्र शुरू हुआ। विवि ने यहां रोजगारपरक पाठ्यक्रम शुरू करने का प्रचार करने के साथ ही इसका प्रयोगवादी होने के रूप में भी परिचय भी दिया, लेकिन छात्रों ने फिर भी इसमें अपेक्षित रुचि नहीं दिखाई। दून विवि के प्रथम बैच के लिए 19 जुलाई को प्रवेश परीक्षा हुई थी। स्कूल आफ एन्वायरमेंटल साइंसेज व स्कूल आफ कम्युनिकेशन की अस्सी सीटों पर प्रवेश के लिए हुई परीक्षा में केवल 130 छात्र-छात्राएं ही शामिल हुए। स्कूल आफ एन्वायरमेंटल साइंसेज के दो एमएससी पाठ्यक्रमों में 20-20 सीटों के लिए 61 और एमए जनसंचार एवं पत्रकारिता की 40 सीटों के लिए 69 छात्र प्रवेश परीक्षा में शामिल हुए थे। तीन अगस्त से शुरू हुई काउंसिलिंग में विवि केवल 53 सीटें ही भर पाया। इनमें स्कूल आफ कम्युनिकेशन की 24 व स्कूल आफ एन्वायरनमेंटल साइंसेज की 29 सीटें ही भरी जा सकीं। विवि के कुलपति प्रो. गिरिजेश पंत ने स्वीकार किया कि विवि के प्रति छात्रों में अपेक्षित क्रेज नहीं दिखा। प्रो. पंत इसके पीछे प्रवेश का प्रक्रिया देर से शुरू होना, प्रचार पर निजी संस्थानों की तरह पैसा खर्च नहीं किया जाना और नए विवि में प्रवेश में जोखिम का नजरिया को कारण मानते हैं। उनका मानना है कि देहरादून में 'दून' नाम से कई संस्थान होने व कुछ निजी संस्थानों व लोगों द्वारा दून विवि को निजी विवि के रूप में प्रचारित किए जाने के कारण भी ऐसा हुआ। हालांकि उनका कहना है कि आने वाले एक-दो सालों में विवि से निकलने वाले छात्रों की गुणवत्ता के आधार पर और मीडिया के जरिये प्रचार से छात्रों में विवि के प्रति क्रेज देखने को मिलेगा।
लखवाड़-व्यासी पर नए सिरे से होंगे टेंडर
देहरादून। लखवाड़ व्यासी परियोजनाओं पर नए सिरे से टेंडर होंगे। एक सप्ताह के अंदर टेंडर प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।
लखवाड़ व्यासी परियोजनाओं पर 25 साल पहले जेपी तथा एक अन्य कंपनी टेंडर डाले थे। कई कारणों से इन परियोजनाओं पर कुछ काम होने के बाद मामला अधर में लटक गया। इनको लेकर चल रहे विवाद अब लगभग समाप्त हो गए हैं। अब बरसात के बाद ही इन पर काम शुरू हो जाएगा। इससे पहले टेंडर समेत बाकी औपचारिकताओं को पूरा किया जा रहा है। ताकि बारिश रुकते ही काम शुरू किया जा सके।
पहले कोशिश हो रही थी कि उन्हीं कंपनियों से रिवाइज दरें मांग ली जाएं। मिल बैठकर नई दरों में एक राय तक पहुंचा जाए। अब इस संबंध में ऊपरी स्तर पर इस विचार को बदल दिया गया है। अब नए सिरे से टेंडर प्रक्रिया शुरू करने को कहा गया है। ताकि पिछली दरों के झमेले से बचा जा सके। नई दरों पर नए सिरे से काम शुरू हो सके। जल विद्युत निगम स्थित सूत्रों के अनुसार एक सप्ताह के अंदर टेंडर प्रक्रिया पूरी कर ली जाएगी।
राफ्टिंग: 35 करोड़ के व्यवसाय पर विवाद का साया
देहरादून। गंगाघाटी में व्हाइट वाटर राफ्टिंग के जरिए हर साल होने वाले करीब 35 करोड़ रुपये के व्यवसाय पर विवाद का साया मंडराने लगा है। एक सितंबर से शुरू होने वाले राफ्टिंग सीजन से ऐन पहले इस व्यवसाय से जुड़ी 109 निजी कंपनियों ने सरकार की मौजूदा राफ्टिंग नीति के खिलाफ झंडा बुलंद कर दिया है। कंपनियों का कहना है कि गंगा नदी में राफ्टिंग के लिए पर्यटन विभाग से मिलने वाले लाइसेंस की अवधि कम से कम पांच वर्ष होनी चाहिए। कैंपिंग के लिए गंगातटों के आवंटन हेतु प्रस्तावित नीलामी प्रक्रिया तत्काल रोकी जाए। साथ ही, ऋषिकेश-कौडियाला इको-टूरिज्म जोन में वन विभाग द्वारा वसूले जा रहे राजस्व का उपयोग भी सिर्फ पर्यटक सुविधाओं के लिए किया जाए।
ऋषिकेश-कौडियाला इको-टूरिज्म जोन में राफ्टिंग व्यवसाय से जुड़ी 109 कंपनियों ने तीन नीतिगत सवालों को लेकर संघर्ष की राह अख्तियार की है। सीजन शुरू होने से ऐन पहले उन्होंने राफ्टिंग उपकरणों की जांच के लिए ऋषिकेश पहुंची टेक्निकल कमेटी को निरीक्षण किए बगैर ही बैरंग लौटा दिया, जिसके चलते किसी भी कंपनी को सितंबर से शुरू हो रहे सीजन के लिए अभी तक लाइसेंस नहीं मिल पाया है। राफ्टिंग कंपनियों का तर्क है कि जब तीन माह पूर्व उनके उपकरणों का निरीक्षण हो चुका है, तो दुबारा निरीक्षण का क्या मतलब है। तकनीकी निरीक्षण के नाम हो रहे उत्पीड़न को राफ्टिंग कंपनियां अब बर्दास्त करने में मूड में नहीं हैं। साहसिक पर्यटन संघर्ष समिति के बैनर तले एक मंच पर जुटी इन कंपनियों ने स्पष्ट चेतावनी दी है, कि यदि 20 अगस्त तक लाइसेंस जारी नहीं हुए, तो राफ्टिंग व्यवसाय से जुड़े करीब पांच हजार लोग 21 अगस्त को बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग को अनिश्चितकाल के लिए जाम कर देंगे। ऋषिकेश-कौडियाला के बीच महज 20 किलोमीटर के दायरे में स्थित इस इको-टूरिज्म जोन में 109 कंपनियां राफ्टिंग-कैंपिंग व्यवसाय से जुड़ी हैं। स्थानीय लोगों की कई दशक की मेहनत के बूते 35 करोड़ रु. सालाना टर्नओवर तक पहुंचे इस व्यवसाय से करीब पांच हजार लोग सीधे तौर पर जुड़े हैं, जबकि अप्रत्यक्ष रूप से भी सैकड़ों परिवारों की आर्थिकी इस पर टिकी हुई है। अब जबकि तीन नीतिगत सवालों पर सितंबर से शुरू होने वाले राफ्टिंग सीजन पर विवाद का साया मंडराने लगा है, तो व्यवसाय से जुड़े लोगों की रोजी-रोटी पर भी संकट गहराने लगा है। संघर्ष के संयोजक दीपक भट्ट का कहना है कि स्थानीय लोगों की दशकों की मेहनत के बूते ही गंगाघाटी में यह उद्योग स्थापित हुआ है। साथ ही, राफ्टिंग से जुड़ी कंपनियां सरकार को हर साल लाखों रुपये का राजस्व भी कमा कर दे रही हैं। इसके बावजूद तकनीकी निरीक्षण, लाइसेंस और बीच आवंटन की नीलामी प्रक्रिया के नाम पर उनका आर्थिक व मानसिक उत्पीड़न कहां तक जायज है। समिति की मांग है कि राफ्टिंग के लिए सरकार ठोस व सर्वमान्य नीति घोषित करे, ताकि सरकार के साथ-साथ स्थानीय लोगों को भी व्यवसाय का पूरा लाभ मिले।
Tuesday, August 11, 2009
यात्री होंगे जज , अफसर होंगे जवाबदेह
हरिद्वार। भारतीय रेल के अब तक के इतिहास में पहली बार मुरादाबाद मंडल ने रेल यात्रियों को 'जज' बनाया है और अफसरों को 'जवाबदेह'। मंडल ने पारदर्शिता को तरजीह देते हुए ए-वन और ए श्रेणी में शामिल पांच रेलवे स्टेशनों पर यात्रियों को अधिकारों से लैस किया है। यात्रियों को कहीं भी गंदगी या ड्यूटी पर तैनात कर्मी नहीं मिलने पर वे प्लेटफार्म पर प्रदर्शित रंगीन बोर्ड पर अंकित नंबर पर शिकायत दर्ज करा सकते हैं। अफसर तत्काल शिकायत को तस्दीक कर लापरवाह कर्मचारी के विरुद्ध 'एक्शन' लेंगे। इसमें सफाई कर्मी की पगार से 100 रुपये प्रति शिफ्ट तक काटे जा सकते हैं।
रेलवे यात्री स्टेशन पर गंदगी होने पर अफसरों को शिकायत दर्ज करा सकते हैं। इसके लिए प्लेटफार्म पर टांगे गए बोर्ड में दर्ज नंबरों के जरिये अफसरों से शिकायत की जा सकेगी। मुरादाबाद मंडल के पांच रेलवे स्टेशन हरिद्वार, देहरादून, मुरादाबाद, बरेली और हापुड़ में यह व्यवस्था की गई है। मुरादाबाद मंडल से आए बोर्ड में सफाई कर्मियों की तादाद, उनके कार्य करने का समय, पैदल फुट ओवर ब्रिज पर कार्य करने का समय सहित हर चीज का ब्योरा दिया गया है। यदि यात्री चाहें तो इन कर्मियों के बोर्ड पर डिस्प्ले जानकारी के अनुसार प्लेटफार्म पर सफाई कर्मी नजर नहीं आने पर तुरंत शिकायत दर्ज करा सकते हैं। यह अधिकारी की जिम्मेदारी होगी कि वह शिकायत की जांच कर कर्मचारी के खिलाफ कार्रवाई करेगा। इसके पीछे कर्मचारियों और अफसरों को काम के प्रति जवाबदेह बनाना है।
यात्रियों ने की तारीफ
हरिद्वार: इलाहाबाद से देहरादून जाने वाली लिंक एक्सप्रेस के शयनयान से उतरे यात्री मुकेश सिंह और हरिकेश बहादुर ने नई व्यवस्था की जमकर तारीफ की। शताब्दी सुपरफास्ट से हरिद्वार पहुंचे दिल्ली निवासी सुखविंदर कौर ने बताया कि निश्चित रूप से यह काबिलेतारीफ है। इसे हर विभाग में लागू किया जाना चाहिए।
Wednesday, July 8, 2009
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1) Field Officer
Qulification : Graduate
Exp - Minimum 3 yrs.
Location : Haridwar
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Exp : 5-8 yrs.
Location : Haridwar
3. Welder - ITI
Exp - 1 to 5 yrs
Location : Haridwar
4. Supervisors
Qulification : Graduate
Exp - Minimum 3 yrs.
Location : Haridwar
5. Helpers - 500
Qulification : Not required.
Location : Haridwar / Rudrapur
6. Security Officer
Location : Rudrapur
Expe - 1 to 5 yrs
7. Security Guards
Location : Rudrapur
Expe - 1 to 5 yrs
8. Security Head
Location : Rudrapur / Haridwar
Qulification : Army Retired (Capt- Col)
9. Front Office Executive / Receptionist (Female)
Exp - 3 to 5 yrs
Location : Rudrapur / Haridwar
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Rudrapur / Haridwar
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Regards
K P Sharma
Monday, July 6, 2009
अड़तालीस दिन तक चली तपस्या पूरी
कालागढ। देश और समाज में सुख शांति की कामना के लिए विश्वसुरानन्द महाराज की 48 दिनों तक चली तपस्या शनिवार को पूरी हो गयी। तपस्या पूरी होने के बाद रविदास मंदिर में भजन कीर्तन का कार्यक्रम पूरी रात चलता रहा।
केंद्रीय कालोनी कालागढ़ स्थित संतशिरोमणि गुरु रविदास मंदिर में 48 दिनों तक चली विश्वसुरानन्द महाराज की धूप में बैठकर तपस्या शनिवार को पूरी हो गयी। रविवार को सैंकड़ों लोगों ने मंदिर पहुंचकर प्रसाद ग्रहण किया। प्रसाद ग्रहण करने से पूर्व मंदिर प्रागंण में तेजपाल सिंह सगर, बाबूराम, करतार सिंह आदि ने यज्ञ में आहुति देकर समाज के कल्याण की कामना की। विश्वसुरानन्द महाराज ने बताया कि उन्होंने 11 मई 2009 से धूप में बैठकर तपस्या आरम्भ की थी जो बीते शनिवार 27 जून को पूरी हो गयी। प्रात: 9 बजे से सायं तीन बजे तक तपस्या की जाती थी। 48 दिनों की तपस्या पूरी होने के बाद कल सांयकाल से आकाश में बादल छा जाने के बाद से श्रृद्धालुओं में काफी उत्साह था
पंचायत प्रतिनिधियों को बताए अधिकार
घर बैठे मोबाइल पर ही देखें रिजल्ट
श्रीनगर (पौड़ी गढ़वाल)। परीक्षा परिणाम उपलब्ध कराने को लेकर गढ़वाल विवि इस बार हाईटेक तौर तरीके अपना रहा है। विवि प्रशासन ने इस बार छात्रों को घर बैठे मोबाइल पर ही परीक्षा परिणाम देखने की सुविधा मुहैया कराने का निर्णय लिया है। इस योजना के तहत छात्रों को एक विशेष नंबर पर सिर्फ एक मैसेज भेजना होगा और उनका परिणाम मोबाइल स्क्रीन पर उपलब्ध हो जाएगा।
गढ़वाल विवि न सिर्फ उत्तराखंड, बल्कि उत्तर भारत का भी पहला ऐसा विवि बन गया है, जो एसएमएस के जरिए छात्र-छात्राओं को रिजल्ट उपलब्ध करा रहा है। कुलपति प्रो. श्रीकृष्ण सिंह के निर्देशन में गढ़वाल विवि के विशेष कार्याधिकारी प्रो. एलजे सिंह के विशेष प्रयासों से यह हाईटेक योजना अमल में लाई गई है। इसके लिए विवि कंप्यूटर विभाग के अध्यक्ष प्रो. एमएमएस रौथाण, संदीप रावत, डा. सुरेन्द्र सिंह रावत ने विशेष साफ्टवेयर तैयार करवाया है। इससे पूर्व हर वर्ष गढ़वाल विवि विभिन्न पाठ्यक्रमों के परीक्षा परिणाम विवि की वेबसाइट पर उपलब्ध कराता रहा है। अब मोबाइल पर रिजल्ट मिलने की सुविधा उपलब्ध होने के बाद पहाड़ के दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले छात्र-छात्राओं को काफी सुविधा मिल जाएगी। विवि ने शनिवार को बीएससी तृतीय वर्ष संस्थागत और एमएससी प्रथम वर्ष कैमिस्ट्री और बॉटनी के रिजल्ट भी घोषित कर दिए हैं। विवि के विशेष कार्याधिकारी प्रो. एलजे सिंह ने बताया कि इंटरनेट कनेक्टिविटी की तकनीकी समस्या के कारण यह तीनों रिजल्ट रविवार को दोपहर तक विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर उपलब्ध हो जाएंगे। साथ ही मोबाइल पर भी रिजल्ट देखे जा सकेंगे|
स्वरोजगारपरक प्रशिक्षण के लिए साक्षात्कार पू
पौड़ी गढ़वाल। समाज कल्याण विभाग अनुसूचित जाति के गरीब छात्र-छात्रों दिया जाने वाले निशुल्क फैशन डिजाइनिंग एवं कम्प्यूटर प्रशिक्षण इसी माह शुरू होगा।
समाज कल्याण विभाग हर साल जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में अनुसूचित जाति के बीपीएल परिवारों के छात्र-छात्रों को तीन माह का फैशन डिजाइनिंग और कंप्यूटर प्रशिक्षण दिया जाता है। इसमें अनुसुचित जाति के गरीब छात्र व्यावसायिक एवं तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त करते है। इस साल यह स्वरोजगारपरक प्रशिक्षण कोटद्वार और श्रीनगर क्षेत्रों के अनुसूचित जाति के छात्र-छात्रों को दिए जाने का निर्णय लिया गया था। इसके लिए विभाग ने प्रशिक्षणार्थियों का चयन कर लिया है। फैशन डिजाइनिंग की निर्धारित 25 सीटों के लिए प्राप्त 28 आवेदनों में से 25 का साक्षात्कार के माध्यम से चयन कर लिया गया। फैशन डिजाइनिंग के लिए निर्धारित 25 सीटों के लिए प्राप्त 32 आवेदनों में से 25 का साक्षात्कार के माध्यम से चयन कर लिया गया है।
जिला समाज कल्याण अधिकारी जगमोहन सिंह ने बताया कि श्रीनगर में कंप्यूटर एवं कोटद्वार में फैशन डिजाइनिंग का प्रशिक्षण जुलाई माह के तीसरे सप्ताह से शुरू किया जाएगा।
Sunday, July 5, 2009
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पर्यटन: लुभाएंगी अछूती वादियां
कोटद्वार (पौड़ी गढ़वाल)। लैंसडौन वन प्रभाग के अंतर्गत कोटद्वार-सनेह- कोल्हूचौड़ व कोटद्वार-दुगड्डा-मोड़ाखाल- नौड़ी को इको पर्यटन सर्किट के रूप में विकसित करने की कवायद शुरू हो गई है। प्रभाग की ओर से इस संबंध में शासन को 43 लाख का प्रस्ताव भेजा गया है।
स्थानीय बेरोजगारों को पर्यटन से जोड़ कर उनकी आर्थिकी को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से लैंसडौन वन प्रभाग कोटद्वार-सनेह-कोल्हूचौड़ व कोटद्वार-दुगड्डा-मोड़ाखाल-नौड़ी को इको टूरिज्म पर्यटन सर्किट के रूप में विकसित करने की मंशा बना ली है। विभाग का कहना है कि दोनों स्थान प्राकृतिक छटा से भरपूर हैं, जो बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित कर सकते हैं। खोह व कोल्हू नदियों के मध्य अवस्थित सनेह क्षेत्र में स्थित कोल्हूचौड़ में प्रभाग का सबसे बड़ा चौड़ है। यहां हिरन की विभिन्न प्रजातियों के अलावा हाथी, बाघ आदि वन्यजीवों की खासी तादाद मौजूद है।
उधर, नौड़ी क्षेत्र वन्य जीवों एवं जैव विविधता से परिपूर्ण है। दुगड्डा-कोटद्वार के मध्य टूट गधेरा वन क्षेत्र को हाथी राजाजी व कार्बेट नेशनल पार्क के मध्य आवागमन हेतु बतौर कॉरीडोर प्रयुक्त करते हैं। सड़क मार्ग पर होने के कारण दोनों स्थानों पर पर्यटकों को आवाजाही भी आसानी से हो सकती है। इस संबंध में लैंसडौन वन प्रभाग की ओर से शासन को 43 लाख का प्रस्ताव भेजा गया है। इसके तहत सनेह व मोड़खाल में पर्यटकों के ठहरने के लिए चार प्रीफैब्रिकेटेड/बैंबू हट का निर्माण प्रस्तावित है। इसके अलावा मोड़खाल से नौड़ी के मध्य ट्रैक/ट्रेल रूट भी बनाया जाना है। प्रस्ताव में कोटद्वार-दुगड्डा-मोड़खाल-नौड़ी पर्यटन सर्किट को कोटद्वार-रथुवाढाब-हल्दूपड़ाव सर्किट से जोड़ने की बात कही गई है, ताकि पर्यटक आसानी से कार्बेट नेशनल पार्क से जुड़ सकें। प्रभागीय वनाधिकारी निशांत वर्मा ने बताया कि उक्त प्रस्ताव स्वीकृति के लिए शासन को भेज दिया गया है। उन्होंने बताया कि यदि प्रस्ताव पर सहमति की मुहर लग जाती है तो स्थानीय बेरोजगारों को रोजगार के नए अवसर मिलेंगे। साथ ही क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही भी बढ़ जाएगी।
कला का बेजोड़ नमूना है देवल मंदिर समूह
पौड़ी गढ़वाल। पौड़ी से करीब 14 किमी दूर कोट ब्लाक के देवल गांव में स्थित द्वादश मंदिरों का समूह धार्मिक के साथ ही कलाओं का भी बेजोड़ नमूना है। इस मंदिर समूह को लक्ष्मण मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। धार्मिक आस्था से जुड़ा यह मंदिर समूह पर्यटन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है, पर यह पर्यटन विकास तथा मंदिर समूह का प्रचार-प्रसार न होने से यह उपेक्षित है।
11वीं से 15 वीं शताब्दी के बीच निर्मित इस मंदिर समूह में कला का अद्भुत नमूना देखने को मिलता है। ब्लाक मुख्यालय कोट के नजदीकी गांव देवल में स्थित इस मंदिर समूह में कुल बारह मंदिर हैं। क्षेत्रीय पुरातत्व विभाग के अभिलेखों के अनुसार पहला मंदिर सर्वाधिक ऊंचा है, यह मंदिर अर्द्धमंडप द्वादश कोणीय दो प्रस्तर स्तंभों पर खड़ा है। मंदिर के उत्तरंग के ललाट विम्ब में चतुर्भुज गणेश निरूपित हैं। मंदिर में गज, सिंह, नाग एवं गजारोही के दृश्य अंकित हैं। दूसरे मंदिर में ऊर्ध्वछंद योजना में जगती बेदीबंध, जंघा और शिखर अवलोकनीय है। तीसरा मंदिर पुनर्निर्मित है। दक्षिणाभिमुख इस मंदिर के वेदीबंध को खुर, कुंभ, कलश तथा कपोत गढ़नों से अलंकृत किया है। चौथे मंदिर के प्रवेश द्वार को पुष्प शाखा से सुशोभित किया है। इसी तरह अन्य मंदिरों में भी कला के बेजोड़ नमूने देखने को मिलते हैं। मंदिर समूह में विष्णु की तीन प्रतिमाएं, लक्ष्मी- नारायण की एक प्रतिमा स्थापित है। स्थापित की गई ब्रह्मा की प्रतिमा को हंस पर आरुढ़ दर्शाया है। इस मंदिर समूह का आकर्षण किसी को भी अपनी ओर खींचने की क्षमता रखता है। हालांकि इसको अभी प्रचार की दरकार है। क्षेत्रीय पुरातत्व विभाग की ओर से मंदिर का संरक्षण किया जाता है। आस्था का प्रतीक यह मंदिर बहुत भव्य है, पर यहां सीमित संख्या में ही श्रद्धालु पहुंचते हैं। देवल गांव निवासी नितिन उप्रेती बताते हैं मंदिर में बैकुंठ चतुर्दशी के पहले दिन मेला आयोजित किया जाता है। इसी दिन फलस्वाड़ी गांव में मनसार मेला होता है। उन्होंने बताया कि 14 अपै्रल को देवल मंदिर में जगौर मेले का आयोजन होता है। इन दोनों मेलों में सितोनस्यूं पट्टी के दर्जनभर से अधिक गांवों के हजारों ग्रामीण भाग लेते हैं। इन मेलों का प्रचार करने से भी यहां पर्यटकों का रुझान बढ़ सकता है।
जिला पर्यटन अधिकारी का प्रभार देख रहे हीरा लाल का कहना है कि इस मंदिर के पर्यटन विकास से संबंधित न तो कोई प्रस्ताव आया है और नहीं विभाग के पास मंदिर के बारे में कोई जानकारी है। उन्होंने कहा कि वह स्वयं भी मंदिर समूह स्थल का निरीक्षण करेंगे और विभाग द्वारा जो इसके विकास को हर संभव कार्य किया जाएगा।
jagran se sabhar
Monday, June 29, 2009
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