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राज्य में जहाँ एक ओर पेड़ों कि बढ रही कटाई के खिलाफ सरकार जागरूकता अभियान चला रही है, वहीँ दूसरी ओर राज्य के कुछ ग्राम ऐसे हैं जो स्वयं वृक्ष बचाने के लिए
उनकी पूजा कर रहे हैं। औषधीय और पर्यावरणीय महत्व वाले थुनेर के वृक्ष बचाने के लिए सुक्की गांव के लोगों ने इसे हरा-भरा करने का बीड़ा उठाया है। सुक्की गांव के ऊपर फैले इस जंगल से कोई भी ग्रामीण लकड़ी नही काटता है, ग्रामीणों में मान्यता है कि इन पेड़ों पर देवता के चित्र दिखाई देते हैं, इसलिए यहां पेड़ काटना पाप है। उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से 55 किमी दूर सुक्की गांव के डाबरा तोक में थुनेर का एक जंगल है। एक किमी लंबाई तथा पांच सौ मीटर चौड़ाई वाले इस जंगल को लेकर किवदंति है कि करीब पचास साल पहले यहां थुनेर के कुछ पेड़ हुआ करते थे। एक बार किसी ग्रामीण ने एक पेड़ को काटा तो उसके तने कुछ चित्र उभरे हुए नजर आए। जो देवी देवताओं के चित्रों से मिलते जुलते थे। अन्य ग्रामीणों को इसका पता चला तो उन्होंने जंगल में पूजा अर्चना शुरू कर दी। इसके बाद यह परंपरा शुरू हो गई और लोगो ने इन पेड़ों की हिफाजत करना शुरू कर दिया। इस पेड़ की लकड़ियों से पहले अनाज आदि रखने के लिये कोठार बनाए जाते थे, लेकिन ग्रामीणों ने अपनी इस जरूरत को भी त्याग दिया। समय के साथ अन्य क्षेत्रों में जहां थुनेर के पेड़ कम होते चले गये वहीं इस जगह पर एक जंगल ही विकसित हो गया। ग्रामीण अब भी विभिन्न धार्मिक पर्वो पर इस जंगल की पूजा करना नहीं भूलते और वन देवता की रक्षा का संकल्प लेते हैं। दशकों पहले शुरू की गई इस परंपरा को नई पीढि़यां सहर्ष स्वीकार करती हैं और इस जंगल को लेकर गांव के युवा भी काफी जागरुक हैं। ग्राम प्रधान एकादशी देवी बताती हैं कि अपने पुरखों की इस देन को सहेज कर रखना और उसे और हरा भरा बनाना हमारी जिम्मेदारी है। ग्रामीणों को लकड़ी की जरूरत होने के बावजूद इस जंगल का रुख कोई नहीं करता यह हमारे खून में शामिल हो चुका है। समुद्र तल से सत्रह सौ मीटर से अधिक ऊंचाई पर पनपने वाले थुनेर की पत्तियों से निकलने वाले टैक्सास बक्काटा नामक रसायन से कैंसर रोधी दवा तैयार की जाती है, लेकिन इसके लिये काफी तादाद में पत्तियों की जरूरत होती है इसीलिये इसे दुर्लभ माना जाता है।
वन विभाग भी कई वर्षो से संरक्षित प्रजाति के थुनेर को विकसित करने में जुटा है। टकनौर क्षेत्र में अनेक जगहों पर विभाग की ओर से थुनेर के वृक्षों का रोपण किया गया है। साथ ही इनकी सुरक्षा भी की जा रही है।
उनकी पूजा कर रहे हैं। औषधीय और पर्यावरणीय महत्व वाले थुनेर के वृक्ष बचाने के लिए सुक्की गांव के लोगों ने इसे हरा-भरा करने का बीड़ा उठाया है। सुक्की गांव के ऊपर फैले इस जंगल से कोई भी ग्रामीण लकड़ी नही काटता है, ग्रामीणों में मान्यता है कि इन पेड़ों पर देवता के चित्र दिखाई देते हैं, इसलिए यहां पेड़ काटना पाप है। उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से 55 किमी दूर सुक्की गांव के डाबरा तोक में थुनेर का एक जंगल है। एक किमी लंबाई तथा पांच सौ मीटर चौड़ाई वाले इस जंगल को लेकर किवदंति है कि करीब पचास साल पहले यहां थुनेर के कुछ पेड़ हुआ करते थे। एक बार किसी ग्रामीण ने एक पेड़ को काटा तो उसके तने कुछ चित्र उभरे हुए नजर आए। जो देवी देवताओं के चित्रों से मिलते जुलते थे। अन्य ग्रामीणों को इसका पता चला तो उन्होंने जंगल में पूजा अर्चना शुरू कर दी। इसके बाद यह परंपरा शुरू हो गई और लोगो ने इन पेड़ों की हिफाजत करना शुरू कर दिया। इस पेड़ की लकड़ियों से पहले अनाज आदि रखने के लिये कोठार बनाए जाते थे, लेकिन ग्रामीणों ने अपनी इस जरूरत को भी त्याग दिया। समय के साथ अन्य क्षेत्रों में जहां थुनेर के पेड़ कम होते चले गये वहीं इस जगह पर एक जंगल ही विकसित हो गया। ग्रामीण अब भी विभिन्न धार्मिक पर्वो पर इस जंगल की पूजा करना नहीं भूलते और वन देवता की रक्षा का संकल्प लेते हैं। दशकों पहले शुरू की गई इस परंपरा को नई पीढि़यां सहर्ष स्वीकार करती हैं और इस जंगल को लेकर गांव के युवा भी काफी जागरुक हैं। ग्राम प्रधान एकादशी देवी बताती हैं कि अपने पुरखों की इस देन को सहेज कर रखना और उसे और हरा भरा बनाना हमारी जिम्मेदारी है। ग्रामीणों को लकड़ी की जरूरत होने के बावजूद इस जंगल का रुख कोई नहीं करता यह हमारे खून में शामिल हो चुका है। समुद्र तल से सत्रह सौ मीटर से अधिक ऊंचाई पर पनपने वाले थुनेर की पत्तियों से निकलने वाले टैक्सास बक्काटा नामक रसायन से कैंसर रोधी दवा तैयार की जाती है, लेकिन इसके लिये काफी तादाद में पत्तियों की जरूरत होती है इसीलिये इसे दुर्लभ माना जाता है।
वन विभाग भी कई वर्षो से संरक्षित प्रजाति के थुनेर को विकसित करने में जुटा है। टकनौर क्षेत्र में अनेक जगहों पर विभाग की ओर से थुनेर के वृक्षों का रोपण किया गया है। साथ ही इनकी सुरक्षा भी की जा रही है।
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