(सुदर्शन सिंह रावत) महिला उत्थान के भले ही लाख दावे किए जा रहे हों, मगर उनके सिर का बोझ अभी हल्का नहीं हुआ है। घर-परिवार की कई जिम्मेदारियां उनके कंधों पर हैं। इन्हीं में उनका जीवन खप जाता है। कारगी क्षेत्र में पशुओं के लिए चारा लाती महिलाओं की जीवटता का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है राज्य बनाने से पूर्व व राज्य बनने के बाद के दस बरसों विकास की सीडी. गाँव का बसना अब पुरानी बात है, गाँव की परिभाषा वही है जो बरसों पहले थी और शहर रोज नयी परिभाषा के साथ आ रहा है.गाँव कि वास्तविक परिभाषा क्या है उसे कौन गड़ेगा. उत्तराखंड के सन्दर्भ मैं कहें तो सबसे खतरनाक बात है कि हमारे गाँव के लगातार कमजोर होते चले जाने पर छाई हुई ख़ामोशी.न पिछले चुनाव मैं और ना ही आज कोई भी राजनैतिक दल इस पर बात करता या कोई प्रभावी विकल्प देता नजर आता है. आप देखिये कि उत्तराखंड में पिछले लोकसभा चुनाव मैं पौड़ी और हरिद्वार लोकसभाओं मैं औसतन तीन लाख लोग बढ़ गए . ये कौन लोग हैं कहाँ से आये हैं और क्यों आ गए हैं गंभीरता से देखें तो .एक भीषण आन्तरिक पलायन आकर ले रहा है.इसका सबसे दुखद पहलु ये है कि जो लोग उतर रहे हैं वे या तो वो हैं जो थोड़ी सी बेहतर स्थिति में हैं या तो वो है जिसके पास कोई रास्ता नहीं बचा यानि किसी भी स्तर का आदमी पहाड़ के गाँव में रहना नहीं चाहता हैं या गाँव के पास ऐसा कुछ नहीं है जो किसी भी स्तर के मनुष्य को कुछ दे सके. मतलब गाँव में न रहने के वो ही कारण हैं, जितने शहर में रहने के हैं .अब पहाड़ की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कही जाने वाली महिलाएं भी अब पुरुषों की राह चल निकली हैं। गांव छोड़ कर पलायन करने में वह पुरुषों से आगे निकल गई हैं। नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के हालिया सर्वेक्षण ने यह चौंकाने वाले नतीजे प्रस्तुत किए हैं।
सर्वेक्षण में कहा गया है कि, उत्तराखंड में 1000 की जनसंख्या में से 539 महिलाएं पहाड़ छोड़ रही हैं। जबकि, पुरुषों में यह संख्या मात्र 151 है। पलायन में उत्तराखंड व हिमाचल की महिलाओं ने उत्तर प्रदेश, बिहार समेत अन्य सभी हिमालयी राज्यों को पछाड़ दिया है। हिमाचल की प्रति 1000 आबादी से 592 महिलाएं पहाड़ छोड़ रही हैं, यह संख्या पूरे देश में अधिकतम हैं। उत्तराखंड के साथ बने झारखंड व छत्तीसगढ़ में महिलाओं के पलायन का आंकड़ा, क्रमश: 308 व 531 है।यूं तो पूरे देश में पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का पलायन तेज हुआ है, लेकिन पहाड़ में इस प्रवृत्ति से यहां की रही-सही कृषि-व्यवस्था भी ध्वस्त होने के कगार पर पहुंच जाएगी। हालांकि, एनएसएस ने पलायन को सकारात्मक बताते हुए, इसे बढ़ते औद्योगिकीकरण का नतीजा बताया है। 2007-08 में किए गए एनएसएस माइग्रेशन सर्वे की रिपोर्ट हाल में जारी की गई। इस सर्वे में देश भर के 79,091 घरों को शामिल किया गया। 7921 गांवों के 46,487 ग्रामीण परिवारों व 4688 नगरीय परिवारों में यह सर्वे हुआ। अर्थशास्त्री प्रो. मृगेश पाण्डे महिलाओं के पलायन को सामाजिक ताने-बाने में आए बदलाव का परिणाम बताते हैं। वे कहते हैं, पहले पुरुष काम के लिए बाहर जाते थे, उनके भेजे मनीऑर्डर पत्नी व परिवार को आते थे। नई पीढ़ी में एकल परिवार का आकर्षण बढ़ने से महिलाएं, पति के साथ ही रहना चाहती हैं। नगरों में बच्चों की शिक्षा, प्रसव व अन्य चिकित्सा सुविधाएं हैं। कृषि घाटे का सौदा हो चुकी है। कृषि की सहायक अर्थव्यस्थाओं के खत्म होने से भी नई गृहणियों का कृषि से मोहभंग हुआ है। पशुपालन घटा है, जबकि लोहार, औजी, हलवाहों, ओड़, ढोली, दर्जी, बारुड़ी आदि की नई पीढ़ी पुश्तैनी पेशे में न जाकर, शहर का रुख कर चुकी है।
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