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उत्तराखण्ड के इतिहास पर एक स्थानीय इतिहासकार तथा कई पुस्तकों के लेखक एस.पी. नैथानी के अनुसार श्रीनगर के विपरीत अलकनन्दा नदी के किनारे रानीहाट के बर्तनों, हड्डियों एवं अवशेषों से पता चलता है कि ३,००० वर्ष पहले श्रीनगर एक सुसभ्य स्थल था जहाँ लोग शिकार के हथियार बनाना जानते थे तथा जो खेती करते थे एवँ बर्तनों में खाना पकाते थे।
मध्य युग
मध्य युग में गढ़वाल पर पँवार वंश का शासन था और इसके ३७वें शासक अजय पाल ने ही श्रीनगर को राजधानी बनाया था। अजय पाल एक अवयस्क राजा था जिसने चान्दपुर गढ़ी में शासन किया जैसा श्री. नैथानी बताते हैं। कुमाऊँ के चन्द शासकों से पराजय के बाद उसने श्रीनगर से ५ किलोमीटर दूर देवलगढ़ के गोरखपन्थी गुरू सत्यनाथ के एक शिष्य के रूप में शरण ली। उन्होंने उसे अपनी राजधानी श्रीनगर में बनाने का परामर्श दिया। श्रीनगर के चयन का दूसरा कारण अलकनन्दा की चौड़ी घाटी की स्थिति था। नैथानी के अनुसार वहाँ एक प्राचीन दक्षिण काली का मन्दिर था तथा तत्कालीन मन्दिर के पुजारी ने भविष्यवाणी की थी कि श्रीनगर में बहुत लोग आएँगे। इतने लोग कि उनके लिए दाल छौकने के लिये एक टन हींग की आवश्यकता होगी। भविष्यवाणी सच हुई तथा अजय पाल के अधीन श्रीनगर उन्नतशील नगर बन गया जिसने यहाँ वर्ष १४९३-१५४७ के बीच शासन किया तथा अपने अधीन ५२ प्रमुख स्थलों को एकीकृत किया। उस समय गढ़वाल राज्य का विस्तार तराई के कंखल (हरिद्वार) एवँ सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) तक हुआ। उनकी मृत्यु के बाद उसके कई वंशजों ने यहाँ शासन किया।
वर्ष १५१७ से १८०३ तक पँवार राजाओं की राजधानी श्रीनगर थी और इस वंश के १७ राजाओं ने यहीं से शासन किया। अजयपाल के बाद सहज पाल एवँ बलभद्र शाह ने इस नगर एवँ राजमहल को संवारने का प्रयास किया, पर राजा मान शाह वास्तव में इस नगर को प्रभावशाली बनाने में सफल हुआ।
यद्यपि स्थाई तौर पर श्रीनगर तथा कुमाऊँ के राजाओं के बीच झड़पे होती रही, पर दोनों पहाड़ी राज्यों को मैदानी ताकतों के अधीन कभी भी न होने का गौरव प्राप्त था। वास्तव में शाहजहाँ के समय यह कहा गया कि पहाड़ी राज्यों पर विजय पाना सबसे कठिन था।
मध्य युग
मध्य युग में गढ़वाल पर पँवार वंश का शासन था और इसके ३७वें शासक अजय पाल ने ही श्रीनगर को राजधानी बनाया था। अजय पाल एक अवयस्क राजा था जिसने चान्दपुर गढ़ी में शासन किया जैसा श्री. नैथानी बताते हैं। कुमाऊँ के चन्द शासकों से पराजय के बाद उसने श्रीनगर से ५ किलोमीटर दूर देवलगढ़ के गोरखपन्थी गुरू सत्यनाथ के एक शिष्य के रूप में शरण ली। उन्होंने उसे अपनी राजधानी श्रीनगर में बनाने का परामर्श दिया। श्रीनगर के चयन का दूसरा कारण अलकनन्दा की चौड़ी घाटी की स्थिति था। नैथानी के अनुसार वहाँ एक प्राचीन दक्षिण काली का मन्दिर था तथा तत्कालीन मन्दिर के पुजारी ने भविष्यवाणी की थी कि श्रीनगर में बहुत लोग आएँगे। इतने लोग कि उनके लिए दाल छौकने के लिये एक टन हींग की आवश्यकता होगी। भविष्यवाणी सच हुई तथा अजय पाल के अधीन श्रीनगर उन्नतशील नगर बन गया जिसने यहाँ वर्ष १४९३-१५४७ के बीच शासन किया तथा अपने अधीन ५२ प्रमुख स्थलों को एकीकृत किया। उस समय गढ़वाल राज्य का विस्तार तराई के कंखल (हरिद्वार) एवँ सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) तक हुआ। उनकी मृत्यु के बाद उसके कई वंशजों ने यहाँ शासन किया।
वर्ष १५१७ से १८०३ तक पँवार राजाओं की राजधानी श्रीनगर थी और इस वंश के १७ राजाओं ने यहीं से शासन किया। अजयपाल के बाद सहज पाल एवँ बलभद्र शाह ने इस नगर एवँ राजमहल को संवारने का प्रयास किया, पर राजा मान शाह वास्तव में इस नगर को प्रभावशाली बनाने में सफल हुआ।
यद्यपि स्थाई तौर पर श्रीनगर तथा कुमाऊँ के राजाओं के बीच झड़पे होती रही, पर दोनों पहाड़ी राज्यों को मैदानी ताकतों के अधीन कभी भी न होने का गौरव प्राप्त था। वास्तव में शाहजहाँ के समय यह कहा गया कि पहाड़ी राज्यों पर विजय पाना सबसे कठिन था।
आधुनिक युग
इतिहास के आधार पर श्रीनगर हमेशा ही महत्वपूर्ण रहा है क्योंकि यह बद्रीनाथ एवं केदारनाथ के धार्मिक स्थलों के मार्ग में आता है। बहुसंख्यक तीर्थयात्री इस शहर से गुजरते हुए यहां अल्पकालीन विश्राम के लिये रूकते रहे हैं। फिर भी नैथानी बताते हैं कि श्रीनगर के राजा ने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि साधु-संतों तथा आमंत्रित आगंतुकों को छोड़कर अन्य तीर्थयात्री शहर के बाहर से ही जयें क्योंकि उस समय हैजा का वास्तविक खतरा था। गढ़वाल में एक पुरानी कहावत थी कि अगर हरिद्वार में हैजा है तो वह 6 दिनों में बद्रीनाथ में फैलने का समय होता था (अंग्रेज भी हैजा को नियंत्रित करने में असमर्थ रहे तथा कई लोगों द्वारा इस रोग के विस्तार को रोकने के लिये घरों को जला दिया जाता था तथा लोगों को घरों को छोड़कर जंगल भागना पड़ता था)।
वर्ष 1803 से नेपाल के गोरखा शासकों का शासन (1803-1815) यहां शुरू हुआ। समय पाकर गढ़वाल के राजा ने गोरखों को भगाने के लिये अंग्रेजों से संपर्क किया, जिसके बाद वर्ष 1816 के संगौली संधि के अनुसार गढ़वाल को दो भागों में बांटा गया जिसमें श्रीनगर क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन हो गया। इसके बाद गढ़वाल के राजा ने अलकनंदा पार कर टिहरी में अपनी नयी राजधानी बसायी। श्रीनगर ब्रिटिश गढ़वाल के रूप में वर्ष 1840 तक मुख्यालय बना रहा तत्पश्चात इसे 30 किलोमीटर दूर पौड़ी ले जाया गया। वर्ष 1894 में श्रीनगर को अधिक विभीषिका के सामना करना पड़ा, जब गोहना झील में उफान के कारण भयंकर बाढ़ आई। श्रीनगर में कुछ भी नहीं बचा। वर्ष 1895 में ए के पो द्वारा निर्मित मास्टर प्लान के अनुसार वर्तमान स्थल पर श्रीनगर का पुनर्स्थापन हुआ। वर्तमान एवं नये श्रीनगर का नक्शा जयपुर के अनुसार बना जो चौपड़-बोर्ड के समान दिखता है जहां एक-दूसरे के ऊपर गुजरते हुए दो रास्ते बने हैं। नये श्रीनगर के मुहल्लों एवं मंदिरों के वही नाम हैं जो पहले थे जैसा कि विश्वविद्यालय के एक इतिहासकार डॉ दिनेश प्रसाद सकलानी बताते हैं।
हिमालयन गजेटियर (वोल्युम III, भाग II ) वर्ष 1882 में ई.टी. एटकिंस के अनुसार कहा जाता है कि कभी शहर की जनसंख्या काफी थी तथा यह वर्तमान से कही अधिक विस्तृत था। परंतु अंग्रेजी शासन के आ जाने से कई वर्ष पहले इसका एक-तिहाई भाग अलकनंदा की बाढ़ में बह गया तथा वर्ष 1803 से यह स्थान राजा का आवास नहीं रहा जब प्रद्युम्न शाह को हटा दिया गया जो बाद में गोरखों के साथ देहरा के युद्ध में मारे गये। इसी वर्ष एक भूकंप ने इसे इतना अधिक तबाह कर दिया कि जब वर्ष 1808 में रैपर यहां आये तो पांच में से एक ही घर में लोग थे। बाकी सब मलवों का ढेर था। वर्ष 1819 के मूरक्राफ्ट के दौरे तक यहां कुछ मोटे सूती एवं ऊनी छालटियां के घर ही निर्मित थे और वे बताते हैं कि यह तब तक वर्ष 1803 के जलप्लावन तथा बाद के भूकंप से उबर नहीं पाया था, मात्र आधे मील की एक गली बची रही थी। वर्ष 1910 में (ब्रिटिश गढ़वाल, ए गजेटियर वोल्युम XXXVI) एच.जी. वाल्टन बताता है, “पुराना शहर जो कभी गढ़वाल की राजधानी तथा राजाओं का निवास हुआ करता था उसका अब अस्तित्व नहीं है। वर्ष 1894 में गोहना की बाढ़ ने इसे बहा दिया और पुराने स्थल के थोड़े अवशेषों के अलावा यहां कुछ भी नहीं है। आज जहां यह है, वहां खेती होती है तथा नया शहर काफी ऊंचा बसा है जो पुराने स्थल से पांच फलांग उत्तर-पूर्व है।”
भारतीय स्वाधीनता संग्राम
श्रीनगर के लोगों की भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में गहरा जुड़ाव थी तथा वर्ष १९३० के दशक के मध्य यहाँ जवाहर लाल नेहरू एवँ विजयलक्ष्मी पण्डित जैसे नेताओं का आगमन हुआ था।
भारत की स्वाधीनता के बाद श्रीनगर, उत्तर प्रदेश का एक भाग बना और वर्ष २००० में यह नव निर्मित राज्य उत्तराञ्चल का भाग बना, जिसका बाद में नाम उत्तराखण्ड कर दिया गया।
श्रीनगर के लोगों की भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में गहरा जुड़ाव थी तथा वर्ष १९३० के दशक के मध्य यहाँ जवाहर लाल नेहरू एवँ विजयलक्ष्मी पण्डित जैसे नेताओं का आगमन हुआ था।
भारत की स्वाधीनता के बाद श्रीनगर, उत्तर प्रदेश का एक भाग बना और वर्ष २००० में यह नव निर्मित राज्य उत्तराञ्चल का भाग बना, जिसका बाद में नाम उत्तराखण्ड कर दिया गया।
विकिपीडिया.org से साभार
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