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यूं तो छुट्टी का दिन बच्चों के लिए मौज-मस्ती का होता है। पूरा दिन उनका उछल कूद में ही व्यतीत होता है, लेकिन मासूम अनिल, सुरेश के लिए तो यह दिन खास हो जाता है। अवकाश के दिन वह सुबह हथोड़ी लेकर घर से निकलते है और बैठ जाते है किसी गदेरे या नदी किनारे जहां वह पत्थर तोड़कर रोड़ी तैयार करते हैं। इन्हें बेचकर वह करते हैं दो जून की रोटी का बंदोबस्त। यह सिर्फ अनिल व सुरेश की कहानी नहीं, बल्कि ऐसे कई गरीब मासूमों को पत्थर तोड़ते देखा जा सकता है।
पेट की भूख बड़ों को ही नहीं छोटों को भी कड़वी हकीकत का अहसास करवा देती हैं और जब भूख होती है तो पत्थरों में भी रोटी तलाशी जाती है। नैलचामी, सौंदाणी, थाती, खरसाड़ा, धोलधार, इडियाल, कोटग आदि जगहों पर ऐसे कई मासूम आपकों नदी, गदेरों या सड़कों के किनारे पत्थर तोड़ते दिख जाएंगे। इनमें ऐसे भी हैं जिनकी उम्र महज सात-आठ साल होगी। इनमें मजदूर, अनसूचित जाति व गरीबों के बाल्य शामिल हैं। यूं तो स्कूल से छुट्टी के बाद भी वह खेलने के बजाए इस कार्य में जुट जाते हैं, लेकिन छुट्टी के दिन दिनभर वह पत्थर तोड़कर रोड़ी तैयार करते हैं। एक कट्टा रोड़ी 20 से 30 रुपये तक बिक जाता है और दिन के हिसाब से करीब 60 से 70 रुपये तक कमा लेते हैं। पत्थर तोड़ते कई बार उंगलियां भी चोटिल हो जाती है, लेकिन इसकी उन्हें परवाह नहीं। चोट पर कपड़े का टुकड़ा बांधकर फिर अपने काम में लग जाते हैं। महिलाएं व बुजुर्ग भी इस काम में लगे हैं। उन्हें अपने बच्चों से यह सब कराना अच्छा नहीं लगता है, लेकिन पेट की खातिर बच्चे अपने परिजनों का हाथ बंटा रहे हैं।
कोटगा के कक्षा नौ में पढ़ने वाला छात्र सुरेश गरीब परिवार से ताल्लुक रखता है। उसके पिता मजदूरी करते हैं, जबकि घर में कुल छह सदस्य हैं। उसका कहना है कि स्कूल की फीस व घर के खर्चे के लिए यह सब करना पड़ता है। वह एक दिन में तीन कट्टा रोड़ी तोड़ लेता है। नैलचामी अनिल अभी पांचवी कक्षा में पढ़ता है। उसका परिवार गरीब है और अपने परिवार के साथ व इस कार्य में हाथ बांटता है, जबकि थाती के सुरेश का कहना है कि घर में पढ़ने वाले हैं, इसलिए फीस व कापी, किताब के लिए वह यह सब करता है।
सुरेश के पिता गबरू व मोहनलाल का कहना है कि बच्चे भी घर की परिस्थितियां समझते हैं, इसलिए उनके साथ बच्चे में इस कार्य में हाथ बाटते हैं। यह सब अच्छा नहीं लगता है, लेकिन मजबूरी उन्हें इसके लिए विवश करती है।
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यूं तो छुट्टी का दिन बच्चों के लिए मौज-मस्ती का होता है। पूरा दिन उनका उछल कूद में ही व्यतीत होता है, लेकिन मासूम अनिल, सुरेश के लिए तो यह दिन खास हो जाता है। अवकाश के दिन वह सुबह हथोड़ी लेकर घर से निकलते है और बैठ जाते है किसी गदेरे या नदी किनारे जहां वह पत्थर तोड़कर रोड़ी तैयार करते हैं। इन्हें बेचकर वह करते हैं दो जून की रोटी का बंदोबस्त। यह सिर्फ अनिल व सुरेश की कहानी नहीं, बल्कि ऐसे कई गरीब मासूमों को पत्थर तोड़ते देखा जा सकता है।
पेट की भूख बड़ों को ही नहीं छोटों को भी कड़वी हकीकत का अहसास करवा देती हैं और जब भूख होती है तो पत्थरों में भी रोटी तलाशी जाती है। नैलचामी, सौंदाणी, थाती, खरसाड़ा, धोलधार, इडियाल, कोटग आदि जगहों पर ऐसे कई मासूम आपकों नदी, गदेरों या सड़कों के किनारे पत्थर तोड़ते दिख जाएंगे। इनमें ऐसे भी हैं जिनकी उम्र महज सात-आठ साल होगी। इनमें मजदूर, अनसूचित जाति व गरीबों के बाल्य शामिल हैं। यूं तो स्कूल से छुट्टी के बाद भी वह खेलने के बजाए इस कार्य में जुट जाते हैं, लेकिन छुट्टी के दिन दिनभर वह पत्थर तोड़कर रोड़ी तैयार करते हैं। एक कट्टा रोड़ी 20 से 30 रुपये तक बिक जाता है और दिन के हिसाब से करीब 60 से 70 रुपये तक कमा लेते हैं। पत्थर तोड़ते कई बार उंगलियां भी चोटिल हो जाती है, लेकिन इसकी उन्हें परवाह नहीं। चोट पर कपड़े का टुकड़ा बांधकर फिर अपने काम में लग जाते हैं। महिलाएं व बुजुर्ग भी इस काम में लगे हैं। उन्हें अपने बच्चों से यह सब कराना अच्छा नहीं लगता है, लेकिन पेट की खातिर बच्चे अपने परिजनों का हाथ बंटा रहे हैं।
कोटगा के कक्षा नौ में पढ़ने वाला छात्र सुरेश गरीब परिवार से ताल्लुक रखता है। उसके पिता मजदूरी करते हैं, जबकि घर में कुल छह सदस्य हैं। उसका कहना है कि स्कूल की फीस व घर के खर्चे के लिए यह सब करना पड़ता है। वह एक दिन में तीन कट्टा रोड़ी तोड़ लेता है। नैलचामी अनिल अभी पांचवी कक्षा में पढ़ता है। उसका परिवार गरीब है और अपने परिवार के साथ व इस कार्य में हाथ बांटता है, जबकि थाती के सुरेश का कहना है कि घर में पढ़ने वाले हैं, इसलिए फीस व कापी, किताब के लिए वह यह सब करता है।
सुरेश के पिता गबरू व मोहनलाल का कहना है कि बच्चे भी घर की परिस्थितियां समझते हैं, इसलिए उनके साथ बच्चे में इस कार्य में हाथ बाटते हैं। यह सब अच्छा नहीं लगता है, लेकिन मजबूरी उन्हें इसके लिए विवश करती है।
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